२.६० – यततो ह्यपि कौन्तेय

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चित : ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं  मनः ॥

पद पदार्थ

हे कौन्तेय – हे कुंती पुत्र!
विपश्चित:- भेद करने की क्षमता 
यतत: अपि – प्रयास करते हुए  (आत्म साक्षात्कार के लिए)
पुरुषस्य – व्यक्ति का 
प्रमाथीनी – शक्तिशाली 
इन्द्रियाणि – इन्द्रियाँ
मन:- मन को 
प्रसभं– बलपूर्वक
हरन्थि – खींचतें हैं 

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र ! यद्यपि एक व्यक्ति में भेद करने की क्षमता है और वह (आत्म साक्षात्कार) के प्रयास मे लगा हो, , उसकी मजबूत इन्द्रियाँ उसके मन को बलपूर्वक [अपने ओर] खींचतें हैं।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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