३.३५ – श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

पद पदार्थ

स्वधर्म: – ( वो मनुष्य जो अचित तत्व / शरीर से जुड़ा हो ) कर्म योग जो स्वाभाविक माध्यम है
विगुणः ( अपि ) – दोष से भरपूर होते हुए भी
स्वनुष्ठितात्‌ – दोषरहित अभ्यास
परधर्मात् – ज्ञान योग जो दूसरों के लिए उचित हो ( अपरिचय होने के कारण )
श्रेयान् – सर्वश्रेष्ठ है
स्वधर्मे ( वर्तमानस्य ) – कर्म योग के अभ्यास करते हुए , जो स्वमाध्यम है
निधनं – मर जाना ( इस जन्म में स्वधर्म का फल प्राप्त किये बिना )
श्रेयः – सर्वश्रेष्ठ है
परधर्म: ( तु ) – मगर ज्ञान योग जो दूसरों के लिए उचित हो
भयावहः – भय उत्पन्न करता है ( गलत ढंग से अभ्यास करने से विनाश हो सकता है )

सरल अनुवाद

( वो मनुष्य जो अचित तत्व / शरीर से जुड़ा हो ) कर्म योग, जो स्वाभाविक माध्यम है, का दोष से भरपूर अभ्यास, ज्ञान योग,जो दूसरों के लिए उचित है , का दोषरहित अभ्यास से बेहतर है (अपरिचय होने के कारण ) | कर्म योग, जो स्वधर्म है, के अभ्यास करते हुए मर जाना ( इस जन्म में स्वधर्म का फल प्राप्त किये बिना ) सर्वश्रेष्ठ है ; मगर ज्ञान योग जो दूसरों के लिए उचित हो, भय उत्पन्न करता है | ( गलत ढंग से अभ्यास करने से विनाश हो सकता है )

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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