३.६ – कर्मेन्द्रियाणि संयम्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

पद पदार्थ

यः – जो ज्ञान योग पर ध्यान केंद्रित हो
कर्मेन्द्रियाणि – कर्मेन्द्रियाँ  जैसे  मुँह, वाणी, हाथ, पैर आदि
संयम्य – उन्हें अच्छी तरह से नियंत्रित करना (ताकि वे विषयी सुखों में लिप्त न हो)
विमूढात्मा – जिसके दिल/दिमाग में आत्मज्ञान का अभाव है
मनसा – (उस) मन में
इन्द्रियार्थान्  – विषयी  सुख जो इंद्रियों के लिए भोजन हैं
स्मरन्  आस्ते – उनके बारे में सोचना
स:- उसका
मिथ्याचार: – दोषपूर्ण अनुशासन
उच्यते –  कहा जाता है 

सरल अनुवाद

जो व्यक्ति ज्ञान [योग] पर ध्यान केंद्रित हो, अपने कर्मेन्द्रियों जैसे मुंह, वाणी, हाथ, पैर आदि को अच्छी तरह से नियंत्रित करता है (ताकि वे विषयी सुखों में ग्रस्त न हो ), लेकिन जिसके दिल/दिमाग में आत्म ज्ञान का अभाव है, और  वह अपने मन में इंद्रियों के लिए भोजन बने विषयी सुखों के बारे में सोचता रहता हो, उसका अनुशासन दोषपूर्ण  कहा जाता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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