३.८ – नियतम् कुरु कर्म त्वम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

नियतं  कुरु कर्म त्वम् कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः ।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्येदकर्मणः ॥

पद पदार्थ

नियतं- जो अनादि काल से आदत बन गई हो
कर्म – कर्म योग
त्वं – तुम 
कुरु – कर रहे हो 
हि  – क्योंकि
कर्म – कर्म योग
ज्याय: – श्रेष्ठ
अकर्मण:- कोई कर्म न करना
ते  – तुम्हारे लिए (जो ज्ञान निष्ठावान है )
शरीर यत्र अपि – यहाँ तक कि शरीर को बनाए रखना/संचालन करना (जो ज्ञान निष्ठा के लिए आवश्यक है)
न प्रसिद्येत् – संभव नहीं होगा

सरल अनुवाद

तुम कर्म योग करते हो, जो अनादिकाल से आदत बन गई है, क्योंकि कर्म योग ज्ञान योग से श्रेष्ठ है;  जब कोई कार्य नहीं कर रहे हो, तुम्हारे  लिए ( ज्ञान निष्ठावान के लिए आवश्यक) शरीर को बनाए रखना/संचालन करना भी संभव नहीं होगा।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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