४.१६ – किं कर्म किम् अकर्मेति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

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श्लोक

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिता: |
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ||

पद पदार्थ

कवय: अपि – बुद्धिमान भी
किं कर्म – कर्म क्या है ( जो मुमुक्षु को करना चाहिए )
अकर्म किं – ज्ञान क्या है ( जो कर्म योग का एक अंग है )
इति अत्र – इन दो विषयों में
मोहिता: – व्याकुल हो जाता है ( यथार्थ ज्ञान न होने के कारण )
यत् – उस
ज्ञात्वा – जानकर ( और पालन करके )
अशुभात् – इस भौतिक क्षेत्र की दुर्भाग्य से
मोक्ष्यसे – मुक्त हो जाता है
तत् – उस
कर्म – कर्म ( ज्ञान योग सहयोग )
ते – तुझे
प्रवक्ष्यामि – मैं अच्छी तरह से समझाऊंगा

सरल अनुवाद

बुद्धिमान भी इन दो विषयों में व्याकुल हो जाता है , कि कर्म क्या है और ज्ञान क्या है ; मैं अच्छी तरह से उस कर्म ( ज्ञान योग सहयोग ) के बारे में तुझे समझाऊंगा जिसे जानना और पालन करना चाहिए ; और जिसे पालन करके ,इस भौतिक क्षेत्र की दुर्भाग्य से तुम मुक्त हो सकते हो |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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