४.१८ – कर्मण्यकर्म य: पश्येत्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ४

<< अध्याय ४ श्लोक १७

श्लोक

कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य: |
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत् ||

पद पदार्थ

कर्मणि – कर्म में ( जो कार्य करते हैं )
अकर्म – आत्म ज्ञान ( स्वयं के बारे में ज्ञान ) जो कर्म से अलग है
य: – जो भी
पश्येत् – देखता है
अकर्मणि च – आत्म ज्ञान में
कर्म – कर्म को
य: पश्येत् – जो भी देखता है
स: – वह
बुद्धिमान् – सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का ज्ञाता है
स: – वह
मनुष्येषु – मनुष्यों में
युक्त: – मोक्ष प्राप्ति के लिए योग्य है
( स: ) कृत्स्नकर्मकृत् – कर्म योग का परिपूर्ण कर्ता है

सरल अनुवाद

जो भी आत्म ज्ञान ( स्वयं के बारे में ज्ञान ) जो कर्म से अलग है , को कर्म ( जो कार्य करते हैं ) में देखता है और कर्म को आत्म ज्ञान में देखता है ; वही सभी शास्त्रों के सिद्धांतों का ज्ञाता है ; मनुष्यों में मोक्ष प्राप्ति के लिए योग्य है और कर्म योग का परिपूर्ण कर्ता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

>> अध्याय ४ श्लोक १९

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/4-18/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org