श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
नैव किञ्चित् करोमीति युक्तो मन्येत तत्त्ववित् ।
पश्यन् श्रुण्वन् स्पृशन् जिघ्रन् अश्नन् गच्छन् स्वपन् श्वसन् ॥
प्रलपन् विसृजन् गृह्णन्नुन्मिशन् निमिशन्नपि ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन् ॥
पद पदार्थ
तत्त्ववित् – जो आत्मा को वास्तव में जानता है
युक्त: – कर्मयोगी
पश्यन्-आँखों से रूप को देखते समय
श्रुण्वन् – कानों से ध्वनि सुनते समय
स्पृशन् – त्वचा से स्पर्श अनुभव करते समय
जिघ्रन् – नाक से सुगंध महसूस करते समय
अश्नन् – जीभ से स्वाद चखते समय
गच्छन् – पैरों से चलते समय
स्वपन्- सोते समय
श्वसन् – श्वास लेते समय
प्रलपन् – मुख से बोलते समय
विसृजन् – उत्सर्जन अंगों का उपयोग करके मल, मूत्र छोड़ते समय
गृह्णन् – हाथ से लेते समय
उन्मिषन् – आँखें खोलते समय
निमिषन्नपि – आँखें बंद करते समय
इन्द्रियार्थेषु – ध्वनि आदि जो इंद्रियों के लिए विषय हैं
इन्द्रियाणि – वे इंद्रियाँ
वर्तन्त – लगे हुए हैं
इति – यह जानकर
धारयन् – दृढ़तापूर्वक
‘अहम’ – मैं
किञ्चित् – कोई भी (इंद्रियों की इन गतिविधियों में से)
नैव करोमि -नही करना
इति –ऐसा
मन्येत – चिंतन करता है
सरल अनुवाद
जो कर्मयोगी वास्तव में आत्मा को जानता है, वह ,आंखों से रूप को देखते समय, कानों से ध्वनि सुनते समय, त्वचा से स्पर्श अनुभव करते समय, नाक से सुगंध महसूस करते समय, जीभ से स्वाद चखते समय, पैरों से चलते समय, सोते समय, श्वास लेते समय, मुख से बोलते समय, मल-मूत्र का त्याग करते समय, हाथों से लेते समय, आंखें खोलते समय और आंखें बंद करते समय, दृढ़ता से जानता है कि ,ध्वनि आदि जो इंद्रियों के लिए विषय हैं, वे सभी उन्हीं इंद्रियों में लगे हुए हैं । वह यह कहते हुए विचार करता है कि, ” (इंद्रियों की इन गतिविधियों में से) किसी भी कार्य को मैं (स्वयं) नहीं कर रहा हूँ”।
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