६.२ – यं संन्यासम् इति प्राहु:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

<< अध्याय ६ श्लोक १

श्लोक

यं संन्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव ।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन ॥

पद पदार्थ

पाण्डव – हे पाण्डु पुत्र !
यं – जिसे
संन्यास: इति – ज्ञान
प्राहु: – ( ज्ञानी) कहते हैं
तं – वो
योगं विद्धि – जानो कि वह कर्म योग है ( जानो कि वह कर्म योग का एक अंग है )
असंन्यस्त सङ्कल्प: कश्चन – वो जो आसक्ति को नहीं छोड़ा हो ( प्रकृति ( भूत / देह ) को आत्मा समझना )
योगी – जो कर्म योग में व्यस्त है
न भवति हि – माना नहीं जाता

सरल अनुवाद

हे पाण्डु पुत्र ! जिस विषय को ज्ञानी , ज्ञान कहते हैं , जानो कि वह कर्म योग है ( जानो कि वह कर्म योग का एक अंग है ) ; वह जो आसक्ति को नहीं छोड़ा हो ( प्रकृति ( भूत / देह ) जो आत्मा नहीं है , उसको आत्मा समझना ), उसे कर्म योग में व्यस्त नहीं माना जाता है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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