७.२७ – इच्छाद्वेषसमुत्थेन

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ७

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श्लोक

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वन्द्वमोहेन भारत ।
सर्वभूतानि सम्मोहं सर्गे यान्ति परन्तप ॥

पद पदार्थ

भारत – हे भरत वंशी !
परन्तप – हे शत्रुओं का अत्याचारी !
इच्छाद्वेष समुत्थेन – कुछ ( लौकिक विषयों ) पहलुओं के प्रति पसंद और कुछ पहलुओं के प्रति घृणा के कारण होते हैं
द्वन्द्व मोहेन – सुख और दुःख जैसे भ्रमित करने वाले, स्वार्थी अनुभव
सर्व भूतानि – सभी बद्ध आत्मा
सर्गे – जन्म लेते समय ही
सम्मोहं यान्ति – महान् विस्मय को प्राप्त करते हैं

सरल अनुवाद

हे भरत वंशी ! हे शत्रुओं का अत्याचारी ! सुख और दुःख जैसे भ्रमित करने वाले, स्वार्थी अनुभवों के कारण , जो, कुछ ( लौकिक विषयों ) पहलुओं के प्रति पसंद और कुछ पहलुओं के प्रति घृणा के कारण होते हैं ; सभी बद्ध आत्मा जन्म लेते समय ही महान् विस्मय को प्राप्त करते हैं |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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