८.२८ – वेदेषु यज्ञेषु तपस्सु चैव

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ८

<< अध्याय ८ श्लोक २७

श्लोक

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम् |
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम् ||

पद पदार्थ

वेदेषु – वेदों का पाठ करना
यज्ञेषु – यज्ञ (बलि)
तपस्सु च – और विभिन्न प्रकार के तप (तपस्या)
दाने च एव – और दान में संलग्न होना
यत् पुण्य पलम् – उस पुण्य का परिणाम
प्रदिष्टम् – समझाया गया (शास्त्र में)
तत् सर्वं – वे सभी
इदं – मेरे, परमपुरुष (सर्वोच्च भगवान) की महिमा, जो इन दो अध्यायों (७ वाँ और ८ वाँ )में समझाया गया है
विदित्वा – जानना, और उस ज्ञान के द्वारा
अत्येति – (ऐसे सभी पुण्यों के परिणाम) से परे
योगी – वह जो भक्ति योग का अभ्यास करता है (ज्ञानी बनना)
आध्यम् – प्राचीन, अनादि
परं – सर्वोच्च
स्थानं – श्रीवैकुण्ठ लोक (श्रीमन्नारायण का दिव्य निवास)
उपैति – प्राप्त करता है

सरल अनुवाद

वेदों का पाठ करने, यज्ञ करने, विभिन्न प्रकार के तप और दान करने के लिए शास्त्र में बताए गए उस पुण्य कर्म का जो भी परिणाम हो, जो भक्ति योग का अभ्यास करता है (ज्ञानी बनने पर ) वह मेरे, परमपुरुष (सर्वोच्च भगवान) की महिमा को जानता है जिसे इन दो (७ वाँ और  ८ वाँ ) अध्यायों में समझाया गया है और उस ज्ञान से उन सभी परिणामों  से परे, और प्राचीन, अनादि सर्वोच्च श्रीवैकुंठ लोक (श्रीमन्नारायण का दिव्य निवास) प्राप्त करता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुजदासी

>> अध्याय ९

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/8-28/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org