९.१८ – गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ९

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श्लोक

गतिर्भर्ता प्रभु: साक्षी निवास: शरणं सुहृत् |
प्रभव: प्रलय: स्थानं निधानं बीजमव्ययम् ||

पद पदार्थ

(अस्य जगत – इस संसार के निवासियों के लिए )
गति – लक्ष्य
भर्ता – चेतन ( संवेदनशील ) जो आधार है
प्रभु – चेतन जो नियंत्रण करता है
साक्षी – चेतन जो साक्षी है
निवास – निवास स्थान इत्यादि जहाँ सभी निवास करते हैं
शरणं – चेतन जो आवश्यकताएँ प्रदान करता है और अवांछित पहलुओं को दूर करता है
सुहृत् – चेतन जो कल्याण की कामना करता है
प्रभव प्रलय स्थानं – सृजन और प्रलय का निवास है
निधानं – इस संसार से प्रकट होकर और इसमें डूब जाता है
अव्ययं बीजं – एक अविनाशी बीज ( इस संसार के लिए )
( अहम् एव – केवल मैं हूँ )

सरल अनुवाद

( केवल मैं ही ) लक्ष्य हूँ , चेतन ( संवेदनशील ) जो आधार है , चेतन जो नियंत्रण करता है , चेतन जो साक्षी है , निवास स्थान इत्यादि जहाँ सभी निवास करते हैं , चेतन जो आवश्यकताएँ प्रदान करता है और अवांछित पहलुओं को दूर करता है , चेतन जो कल्याण की कामना करता है , सृजन और प्रलय का निवास है, इस संसार से प्रकट होकर और इसमें डूब जाता है और इस संसार के निवासियों के लिए एक अविनाशी बीज हूँ |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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