९.८ – प्रकृतिं स्वाम् अवष्टभ्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ९

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श्लोक

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुन: पुन: |
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात् ||

पद पदार्थ

स्वां प्रकृतिं – मेरा मूल पदार्थ (जो कई रूपों में विकसित होता है)
अवष्टभ्य – इसे परिवर्तित करना (आठ तरीकों से)
इमं कृत्स्नं भूतग्रामम् – ये सभी (चार प्रकार के) जीव (जैसे देव , मनुष्य, तिर्यक (पशु), स्थावर (पौधे))
प्रकृते वशात् अवशं – मूल पदार्थ से बंधे होने के कारण, स्वयं पर नियंत्रण न होना
पुन: पुन: विसृजामि – उन्हें बार-बार बनाना

सरल अनुवाद

अपने मूल पदार्थ को इन सभी जीवों  में परिवर्तित करके, मैं उन्हें बार-बार बनाता हूँ  क्योंकि वे मूल पदार्थ से बंधे हैं, और उनका स्वयं पर नियंत्रण नहीं है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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