१८.३९ – यदग्रे चानुबन्धे च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३८ श्लोक यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मनः।निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्।। पद पदार्थ यत् – जो सुखअग्रे च – प्रारम्भ मेंअनुबन्धे च – तथा पश्चात्आत्मन: – आत्मा कोमोहनं – मोहग्रस्त करता हैनिद्रा आलस्य प्रमादोत्थं – जो निद्रा, आलस्य तथा प्रमाद के कारण होता … Read more

१८.३८ – विषयेन्द्रियसंयोगाद्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३७ श्लोक विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम्।परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्।। पद पदार्थ विषयेन्द्रिय संयोगात् – इंद्रियों के वस्तुओं (जैसे भोजन, पेय पदार्थ आदि) के संपर्क में आने सेअग्रे – आरंभिक अवस्था में (उन वस्तुओं के भोग की)यत् तत् अमृतोपमम् – जो सुख अमृत … Read more

१८.३७ – यत् तदग्रे विषम् इव

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३६ श्लोक यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्।तत्सुखं सात्त्विकं प्रोक्तमात्मबुद्धिप्रसादजम्।। पद पदार्थ यत् तत् – जो सुखअग्रे – (योग के) आरम्भ मेंविषमिव – दुःखमय (आत्मा सम्बन्धी अभ्यास के अभाव के कारण, तथा उसके कारण कष्ट भोगने के कारण) प्रतीत होता हैपरिणामे – (योग … Read more

१८.३६ – अभ्यासाद्रमते यत्र

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३५.५ श्लोक अभ्यासाद्रमते यत्र दुःखान्तं च निगच्छति।। पद पदार्थ यत्र अभ्यासात् – जिस सुख की हमें बहुत दिनों से आदत हैरमते – अद्वितीय आनंद की प्राप्ति होदुःखान्तं च निगच्छति – इस संसार में सभी दुःखों का अंत हो सरल अनुवाद … Read more

१८.३५.५ – सुखं तु इदानीं त्रिविधं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३५ श्लोक सुखं तु इदानीं त्रिविधं श्रृणु मे भरतर्षभ। पद पदार्थ भरतर्षभ – हे भरत वंश के नेता!इदानीं – अबसुखं तु – सुखत्रिविधं – तीन प्रकारमे श्रृणु – मुझसे सुनो सरल अनुवाद हे भरत वंश के नेता! अब मुझसे तीन … Read more

१८.३५ – यया स्वप्नं भयं शोकं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३४ श्लोक यया स्वप्नं भयं शोकं विषादं मदमेव च।न विमुञ्चति दुर्मेधा धृतिः सा पार्थ तामसी।। पद पदार्थ पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!दुर्मेधा: – दुष्ट बुद्धि वाला मनुष्यस्वप्नं मदं – मन, प्राण आदि के कर्मों जो स्वप्न, तंद्रा, क्षोभ आदि का कारण … Read more

१८.३४ – यया तु धर्मकामार्थान्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३३ श्लोक यया तु धर्मकामार्थान् धृत्या धारयतेऽर्जुन।प्रसङ्गेन फलाकाङ्क्षी धृतिः सा पार्थ राजसी।। पद पदार्थ पार्थ अर्जुन – हे कुन्तीपुत्र अर्जुन!फलाकाङ्क्षी – (मोक्ष के अलावा) परिणामों की इच्छा करता हैप्रसङ्गेन – बड़ी आसक्ति सेधर्म काम अर्थान् – तीन पुरुषार्थों अर्थात् धर्म, … Read more

१८.३३ – धृत्या यया धारयते

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३२ श्लोक धृत्या यया धारयते मनःप्राणेन्द्रियक्रियाः।योगेनाव्यभिचारिण्या धृतिः सा पार्थ सात्त्विकी || पद पदार्थ पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!अव्यभिचारिण्या – बिना किसी अन्य फल की अपेक्षा केयोगेन – भगवद् उपासना (भगवान की पूजा) के माध्यम सेमनः प्राण इन्द्रिय क्रियाः – मन, प्राण … Read more

१८.३२ – अधर्मं धर्मम् इति या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३१ श्लोक अधर्मं धर्ममिति या मन्यते तमसाऽऽवृता।सर्वार्थान्विपरीतांश्च बुद्धिः सा पार्थ तामसी।। पद पदार्थ पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!या – जो ज्ञानतमसा आवृता – तमो गुण से छादित हैअधर्मं धर्मम् इति मन्यते – जो अधर्म को धर्म मानकर भ्रमित होता हैसर्वार्थान् – … Read more

१८.३१ – यया धर्मम् अधर्मं च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ३० श्लोक यया धर्ममधर्मं च कार्यं चाकार्यमेव च।अयथावत्प्रजानाति बुद्धिः सा पार्थ राजसी।। पद पदार्थ पार्थ – हे पार्थ!यया – जिस ज्ञान सेधर्मम् अधर्मं च – धर्म और अधर्मकार्यम् अकार्यं एव च – ‘करने योग्य’ और ‘न करने योग्य’ कार्योंअयथावत् प्रजानाति … Read more