१८.६० – स्वभावजेन कौन्तेय

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५९ श्लोक स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन  कर्मणा |कर्तुं  नेच्छसि  यन्मोहात्  करिष्यस्यावशोऽपि तत् || पद पदार्थ कौन्तेय – हे कुन्ती पुत्र!स्वभावजेन – तुम्हारे पूर्व कर्मों के कारणस्वेन कर्मणा – वीरता जो तुम्हारा कर्म हैनिबद्ध: – बद्ध होनेके कारणअवश : – तुम्हारे … Read more

१८.५९ – यद्यहङ्कारम् आश्रित्य 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५८ श्लोक यद्यहङ्कारम् आश्रित्य  न योत्स्य इति मन्यसे |मिथ्यैष  व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति || पद पदार्थ अहङ्कारम् आश्रित्य – यह मानते हुए कि “मैं स्वयं अच्छे और बुरे का निर्णय कर सकता हूँ” (मेरे आदेश का उल्लंघन करके)न योत्स्य इति – … Read more

१८.५८ – अथ चेत्तत्वम् अहङ्कारान्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५७.५ श्लोक अथ चेत् त्वम्  अहङ्कारान् न  श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि   || पद पदार्थ अथ – अन्यथात्वम् – तुमअहङ्कारान् – अपने आप को सर्वज्ञ मानने के अभिमान मेंन श्रोष्यसि चेत् – यदि तुम मेरी बात नहीं मानोगेविनङ्क्ष्यसि – नष्ट हो जाओगे … Read more

१८.५७.५ – मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५७ श्लोक मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात् तरिष्यसि |पद पदार्थ मच्चित्त: – अपना मन मुझमें रखकर (यदि तुमने सभी कर्म पूर्व वर्णित अनुसार किए हो )सर्व दुर्गाणि – सभी बाधाएँ जो तुम्हें इस संसार (भौतिक क्षेत्र) में बांधतें हैंमत्प्रसादात् – मेरी कृपा … Read more

१८.५७ – चेतसा सर्वकर्माणि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५६ श्लोक चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर: |बुद्धियोगम् उपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव || पद पदार्थ चेतसा – इस विचार के साथ (कि आत्मा मेरी है, और वह मेरे द्वारा नियंत्रित है)सर्व कर्माणि – सभी कर्मों कोमयि संन्यस्य – मुझे अर्पण … Read more

१८.५६ – सर्वकर्माण्यपि सदा 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५५ श्लोक सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्वयपाश्रय: |मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम् || पद पदार्थ सर्व कर्माणि अपि – सभी काम्य कर्मों (परिणाम की आशा के साथ किए गए कार्य)मद्वयपाश्रय: – कर्तापन आदि मेरे प्रति समर्पित करनासदा कुर्वाण: – जो सदैव कर्म करता … Read more

१८.५५ – भक्त्या माम् अभिजानाति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५४ श्लोक भक्त्या मामभिजानति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् || पद पदार्थ य: – मैं जो ऐसे स्वभाव और मनोभाव का हूँयावान् च अस्मि – मुझमें जो ऐसी गुण और धन हैमां – ऐसा मुझेभक्त्या – (पूर्व … Read more

१८.५४ – ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५३ श्लोक ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं  लभते  पराम् || पद पदार्थ ब्रह्मभूत: – आत्मा के वास्तविक स्वरूप को समझकरप्रसन्नात्मा – अविचलित मन युक्तन शोचति – न तो शोक करता है (मेरे अतिरिक्त किसी और … Read more

१८.५३ – अहंकारं बलं दर्पम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५२ श्लोक अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं परिग्रहम् |विमुच्य निर्मम: शान्तो ब्रह्मभूयाय कल्पते || पद पदार्थ अहंकार – शरीर को आत्मा मानना ​​बलं – ऐसे अहंकार को पोषित करने वाले संस्कारों की प्रबलता (जिसके परिणामस्वरूप)दर्पं – अभिमानकामं – लोभक्रोधं – … Read more

१८.५२ – विविक्तसेवी लघ्वाशी

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ५१ श्लोक विविक्तसेवी लघ्वाशी यतवाक्कायमानस: |ध्यानयोगपरो नित्यं वैराग्यं समुपाश्रितः || पद पदार्थ विविक्तसेवी – एकांत स्थान पर रहना (जहाँ ध्यान के लिए कोई बाधा न हो)लघ्वाशी – परिमित आहार लेनायत वाक्काय मानस: – मन, वाणी और शरीर को ध्यान में … Read more