श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीतार्थ संग्रह के दसवें श्लोक में, आळवन्दार् छठे अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “छठे अध्याय में योग का अभ्यास करने की विधि (जो आत्मसाक्षर – आत्मबोध की ओर ले जाती है), चार प्रकार के योगी , व्यायाम् , वैराग्य , आदि , जो ऐसे योग की ओर ले जाता है और स्वयं (कृष्ण) के प्रति भक्ति योग की महानता के बारे में बताया गया है।
मुख्य श्लोक / पद
श्री भगवानुवाच –
अनाश्रितः कर्मफलं कार्यं कर्म करोति यः ।
स संन्यासी च योगी च न निरग्निर्न चाक्रियः ॥
वह जो केवल कर्तव्य निभाने की उद्देश्य में कर्म योग करता है ( बिना कोई अपेक्षा के ) , कर्म के परिणाम जैसे स्वर्ग इत्यादि को बिना पकडे , ज्ञान योग निष्ट ( अभ्यासी ) रहता है ; वह कर्म योग निष्ट ( अभ्यासी ) भी रहता है ; न वह यज्ञ जैसे अग्नि का आह्वान करते कर्मों से परे रहता है न वह एकमात्र ज्ञान निष्ट रहता है (वह जो पर्याप्त कर्म के बिना , विशेष रूप से ज्ञान की खोज पर ध्यान केंद्रित रहता है ) |
टिप्पणी : पहले नौ श्लोकों में कृष्ण, फिर से कर्म योग का विस्तार से व्याख्या करते हैं, जिसमें ज्ञान भी उपस्थित है।
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
व्यक्ति को स्वयं को, उस मन से ऊपर उठाना चाहिए जो सांसारिक सुखों से विरक्त है ; सांसारिक सुखों से जुड़े मन से व्यक्ति को अपने आप को नीचे नहीं धकेलना चाहिए ; केवल मन ( जब सांसारिक सुखों से विरक्त हो ) ही किसी का संबंधी / मित्र है और शत्रु (जब सांसारिक सुखों में संलग्न हो ) भी वही है |
टिप्पणी : स्वयं को ऊपर उठाने में मन के महत्व पर यहाँ रोशनी डाला गया है।
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित: |
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रह: ||
ऐसा कर्म योगी , हर दिन, योग अभ्यास के लिए निर्धारित विशिष्ट समय पर , एकांत स्थान पर अकेले रहकर, भटकते मन पर नियंत्रण पाकर, इच्छा रहित होकर, अपनेपन ( इन विषयों पर ) के विचार के बिना, आत्मा के ध्यान और दर्शन में संलग्न होंगे |
टिप्पणी : १० वें श्लोक से २८वें श्लोक तक, कृष्ण योग करने की विधि बताते हैं।
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन: |
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम् ||
आसन को अटल ( लकड़ी से बना हुआ इत्यादि ) , न बहुत ऊँचा, न बहुत नीचे, रेशमी कपड़ा , हिरण की खाल , कुश ( दर्भ ) घास , एक दूसरे के ऊपर रखा गया [उल्टे क्रम में – पहले बैठक पर घास , उसके ऊपर हिरण की खाल और उसके ऊपर रेशमी कपड़ा ] , एक शुद्ध स्थान पर स्वयं के लिए दृढ़तापूर्वक स्थापित करना चाहिए |
तत्रैकाग्रं मन: कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रिय: |
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धये ||
उस बैठक [ पहले श्लोक में समझाया गया था ] पर बैठकर , मन को एकल-केंद्रित रखकर, मन और इन्द्रियों के कर्मों पर नियंत्रण पाकर , सांसारिक बंधन से मुक्त होने के लिए , आत्मदर्शन में संलग्न होना चाहिए |
टिप्पणी : १३वां श्लोक में शरीर का आसन और आंखों को नाक की नोक पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में बताया गया है। १४वां श्लोक में ब्रह्मचर्य के बारे में बताया गया है। इन्द्रिय सुखों के प्रति आसक्ति का त्याग करना ही ब्रह्मचर्य है। १५वां श्लोक में बताया गया है कि जो लोग इस प्रकार योग करेंगे उन्हें आत्म-साक्षात्कार प्राप्त होगा। १६वां और १७वां श्लोक में नियमित भोजन की आदतें और सोने की आदतों पर महत्व दिया गया है। तत्पश्चात् अधिकारात्मकता छोड़ने की व्याख्या की गई है।
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ।
ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ॥
जिसका मन योगाभ्यास में लगा है, वह सभी आत्माओं (आत्मा जिसका विषयों से कोई संबंध नहीं है) में समान रूप की स्थिति (ज्ञान, आनंद आदि) को देखता है, वह स्वयं को स्वाभाविक रूप से सभी आत्माओं के समान मानता है और सभी आत्माओं को स्वयं के समान स्वभाव वाले के रूप में देखता है ।
टिप्पणी :सभी आत्माओं की समान दृष्टि का महत्व बताया गया है । इस श्लोक से अगले ४ श्लोकों में चार प्रकार के योगियों की व्याख्या की गई है।
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दु:खं स योगी परमो मतः ॥
हे अर्जुन! क्योंकि सभी जगह में, आत्माओं में समानता है (जैसे कि पहले बताया गया है), जो भी स्वयं और दूसरों के खुशी (बच्चे को जन्म देने आदि) और दुःख (बच्चे का मृत्यु आदि) को समान रूप से देखता है, वह योगी श्रेष्ठ माना जाता है|
टिप्पणी : अगले २ श्लोकों में, अर्जुन कृष्ण से मन को नियंत्रित करने में कठिनाई के बारे में बताया, जो हवा को नियंत्रित करने से भी अधिक कठिन है।
श्री भगवान् उवाच
असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम् ।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते ॥
कृष्ण ने उत्तर दिया ,हे महाबाहो! हे कुन्तीपुत्र! इसमे कोई संदेह नहीं कि डगमगाते मन को नियंत्रित करना कठिन है; फिर भी, अभ्यास करने से (आत्मगुण में – आत्मा पर ध्यान केंद्रित करने से) और घृणा विकसित करने से (सांसारिक मामलों में अपने दोष दिखाकर), इसे (कुछ हद तक) नियंत्रित किया जा सकता है।
टिप्पणी : ३५ वें और ३६ वें श्लोक में, कृष्ण बताते हैं कि कैसे अभ्यास द्वारा मन को नियंत्रित किया जा सकता है।
अगले ३ श्लोकों में, अर्जुन उस व्यक्ति के भाग्य के बारे में पूछता है जो योग करना शुरू किया लेकिन उसे पूरा करने से पहले विफल हो गया।
४० वें श्लोक से, कृष्ण पहले उठाए गए प्रश्नों का उत्तर देते हैं। वे समझाते हैं कि ऐसे व्यक्तियों का जन्म अनुकूल परिवारों में होगा ताकि वे योग का अनुसरण वहीं से आगे बढ़ा सकें जहाँ उसे छोड़ा था।
योगिनामपि सर्वेषां मद्गतेनान्तरात्मना ।
श्रद्धावान्भजते यो मां स मे युक्ततमो मतः ॥
जिसका मन मुझमें लगा हुआ है, जो मुझ तक पहुँचने की इच्छा रखता है और मेरा ध्यान करता है, वह मेरे लिए सबसे बड़ा माना जाता है क्योंकि वह पहले बताए गए योगियों और तपस्वियों जैसे सभी लोगों से महान है।
टिप्पणी :कृष्ण समापन में कहते हैं कि जो व्यक्ति निरंतर उनके प्रति समर्पित रहता है, वह योगियों में सर्वश्रेष्ठ है।
अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी
आधार – https://githa.koyil.org/index.php/essence-6/
संगृहीत- http://githa.koyil.org/
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org/
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org/
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org/
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org/