श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय ५ (कर्म सन्यास योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

<<अध्याय ४

गीतार्थ संग्रह के नौवे श्लोक में स्वामी आळवन्दार् , भगवद्गीता के पांचवे अध्याय की सार को दयापूर्वक समझाते हैं , ” पांचवे अध्याय में कर्म योग के उपयोगिता , लक्ष्य को शीघ्रता से प्राप्त करने का इसका पहलू , उसके सहायक भाग और सभी शुद्ध आत्माओं को एक ही स्तर पर देखने की अवस्था के बारे में बताया गया है | “

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

अर्जुन उवाच
सन्यासं  कर्मणां कृष्ण  पुनर्योगं  च शंससि ।
यच्छ्रेय एतयोरेकं  तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम् ॥

अर्जुन ने कहा;

हे कृष्ण! तुम आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने के साधन के रूप में “कर्म योग को छोड़कर ज्ञान योग का पालन  करना” और फिर से कर्म योग की प्रशंसा कर रहे हो। इन दोनों में से तुम जिसे सर्वश्रेष्ठ मानते हो, उसके बारे में मुझे समझाओ।

टिप्पणी – श्री कृष्ण अलग तरीके का अलग समय पर प्रशंसा करते हैं | इसे देख, अर्जुन विभ्रांत हो जाता है और स्पष्ट उत्तर माँगता है |

श्लोक / पद २

श्री भगवान् उवाच
सन्यासः कर्मयोगश्च निःश्रेयसकरावुभौ ।
तयोस्तु कर्मसन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते ॥

श्री भगवान बोले, ज्ञान योग और कर्म योग दोनों स्वतंत्र रूप से आत्म-साक्षात्कार का सर्वोत्तम परिणाम प्रदान करेंगे। फिर भी, उन दोनों में से ज्ञानयोग से अधिक (कुछ कारणों से) कर्मयोग ही महत्वपूर्ण है।

टिप्पणी – कर्म योग की महत्वता पर बल दिया गया है |

श्लोक / पद ३

ज्ञेयः स नित्यसन्यासी  यो न द्वेष्टि  न काङ्क्षति ।      
निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ॥

हे शक्तिशाली भुजाओं वाला ! जो मनुष्य (इन्द्रिय सुखों की) इच्छा न करके और ( ऐसे सुखों को रोकने वालों के प्रति) घृणा न करके  और उसके कारण (सुख-दुःख, गर्मी-सर्दी आदि के) जोड़ियों को सहन करते हुए कर्मयोग का अभ्यास करता है, वह सदैव ज्ञान पर केंद्रित रहता है । केवल वही, आसानी से संसार के बंधन से मुक्त होता है।

टिप्पणी – यहाँ कर्म योग को निभाने के तरीके के बारे में समझाया गया है |

अगले दो श्लोकों में यह समझाया गया है कि कर्म योग और ज्ञान योग दोनों एक ही परिणाम की ओर ले जाते हैं और बुद्धिमान व्यक्ति उन्हें समान रूप से देखता है |

छठवे श्लोक में कर्म योग के महत्व और सहजता के बारे में समझाया गया है | अगले श्लोक में इन पहलू के कारण को समझाया गया है | तत्पश्चात् , अगले दो श्लोकों में, अर्थात् , आठवें और नौवें श्लोक में , कर्म योग में कर्तापन को त्यागने की महत्वता को समझाया गया है |

तत्पश्चात् , श्री कृष्ण कर्म योग के गहरे विषयों के बारे में समझाते हैं , जिनको वैराग्य से करना चाहिए |

श्लोक / पद १८

विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: ||

एक ज्ञानी , एक ब्राह्मण में , जिसमे ज्ञान और विनम्रता है और उस ब्राह्मण में ( जिसमे इनकी कमी हो) , एक गाय में ( जो छोटा हो ) और एक हाथी में ( जो शारीरिक रुप से बड़ा हो ) , एक कुत्ते में ( जिसे मारकर खाया जाता है ) और एक चंडाल में ( जो इन कुत्तों को मारके खाता हो ) जो आत्मा एक ही रूप / स्वभाव में हैं , उनको समदृष्टि से देखता है |

टिप्पणी – यहाँ , आत्म साक्षात्कार के बारे में अच्छी तरह से समझाया गया है |

तत्पश्चात् , आत्मा पर एकाग्रचित्त व्यक्ति का स्वभाव समझाया गया है |

श्लोक / पद २९

भोक्तारं यज्ञतपसां सर्वलोकमहेश्वरम् ।
सुहृदं सर्वभूतानां ज्ञात्वा मां शान्तिमृच्छति ॥

मुझे यज्ञ और तपस को स्वीकार करने वाले के रूप में जानकर, सभी लोकों के सर्वेश्वर और सभी जीवों के मित्र के रूप में जानकर, वह ( ऐसा कर्म योगी ) शान्ति प्राप्त करता है |

टिप्पणी – श्री कृष्ण स्वयं उनको लक्ष्य के रूप में रखने की महत्वता पर बल देकर समाप्त करते हैं |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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