श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय ९ (राजविद्या राजगुह्य योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

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गीतार्थ संग्रह के तेरहवें श्लोक में स्वामी आळवन्दार नौवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “ नौवें अध्याय में उनकी अपनी महानता, उनका मानव रूप में भी सर्वोच्च होना, उन ज्ञानियों की महानता जो महात्मा हैं (इनके साथ) और उपासना जिसे भक्ति योग कहा जाता है, अच्छी तरह से समझाया गया है। ”

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

श्री भगवान उवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे |
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ||

श्री भगवान ने कहा :-
मैं तुम्हें , जो मुझसे ईर्ष्या नहीं करते, उपासना (भक्ति योग का अभ्यास) के बारे में इस सबसे गुप्त ज्ञान को, ऐसे उपासनाओं के विभिन्न प्रकारों के  बारे में विस्तृत ज्ञान के साथ समझाऊँगा , जिसे जानकर तुम सभी पुण्य/पाप से मुक्त हो जाओगे ।

टिप्पणी: सीधे भगवान से बहुमूल्य निर्देश प्राप्त करने की योग्यता उनके प्रति ईर्ष्या न रखना है।

श्लोक / पद २

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम् |
प्रत्यक्षावगमं  धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम् ||

यह भक्ति योग, (ज्ञान/मार्ग) विद्या  में सर्वोत्तम है, रहस्यों में सर्वोत्तम है, पापों को दूर करने वालों में सर्वोत्तम है, (मेरे, कृष्ण के) साक्षात्कार में सहायता करता है, मुझे प्राप्त करने का साधन है,पालन करने में आसान है और (परिणाम देने के बाद भी)अविनाशी है ।

टिप्पणी: भक्ति योग की महानता यहाँ बताई गई है।

अगले श्लोक में, कृष्ण बताते हैं कि जो लोग भक्ति योग का पालन नहीं करते हैं, वे संसार में कष्ट भोगते हैं और इसका पालन न करने का कारण विश्वास की कमी है।

श्लोक / पद ४

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना |
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः ||

ये सभी संसार  (जो चेतन (संवेदनशील  वस्तु) और अचेतन (असंवेदनशील  वस्तु) से बने हैं, मेरे अंतर्यामी रूप ,जो सूक्ष्म है, से व्याप्त हैं ; सभी जीव मुझमें (जो अन्तर्यामी हूँ) हैं (विश्राम कर रहे हैं) लेकिन मैं उनमें नहीं हूँ (जैसे वे मुझ पर आश्रित होकर विश्राम करते हैं)।

टिप्पणी: इस श्लोक और अगले श्लोक में भगवान की महानता पर प्रकाश डाला गया है। यह भक्ति योग की महानता को दर्शाने के लिए है जो ऐसे महान परिणाम की ओर ले जाता है।

श्लोक / पद ५

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् |
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावन: ||

वे मुझमें नहीं हैं (जैसे पानी को घड़े आदि के सहारे रखा जाता  है, लेकिन वे मेरी इच्छा से [आसानी से] समर्थन  किए जाते हैं); ईश्वर की समृद्धि, जो मेरा है, मेरे संकल्प (ईश्वरीय इच्छा), को देखो। मैं ही हूँ, जो सभी  जीवों को धारण करता हूँ  और फिर भी  जीवों द्वारा धारण नहीं किया जाता हूँ  [जैसे मैं उन्हें धारण करता हूँ]; मेरा संकल्प ही उनके अस्तित्व, स्थायित्व और नियंत्रण का कारण है|

टिप्पणी : जब भगवान कहते हैं “ वे मुझमें नहीं हैं ”, इसका मतलब यह नहीं है कि वस्तुएँ  उनमें नहीं हैं। निःसंदेह भगवान सभी के लिए विश्राम स्थल हैं। लेकिन वह कह रहे हैं, ” इसके विपरीत, मैं , जिन  वस्तुओं में उन्हें भरण पोषण करने वाले के रूप में उपस्थित  हूँ, वे वस्तुएँ, मुझ पर आराम करते हुए भी मेरे भरण पोषण नहीं करते हैं । “

अगले श्लोक में, कृष्ण ५वें श्लोक में दिखाए गए सिद्धांत को समझाने के लिए एक उदाहरण देते हैं।

७वें श्लोक में, यह समझाया गया है कि उनका संकल्प (व्रत) सभी संसारों के अस्तित्व और गतिविधियों का संचालन करता है।

८वें श्लोक में सृष्टि के बारे में और अधिक विस्तार से बताया गया है।

९वें श्लोक में, वे कहते हैं कि यद्यपि वे सृजन, पालन और संहार में लगे हुए हैं, लेकिन ऐसा करने में उन्हें कोई दोष नहीं है।

१०वें श्लोक में, इन गतिविधियों में उनके महत्व को समझाया गया है।

श्लोक / पद ११

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम् |
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम् ||

जो मूर्ख, मेरे सर्वोच्च स्थिति से अज्ञान हैं, वे मेरे , जिसने सभी वस्तुओं का सर्वोच्च स्वामी होते हुए भी मानव रूप धारण किया है , अपमान करते हैं ।

टिप्पणी : कृष्ण इस बात से परेशान हो जाते हैं कि लोगों को उनकी महानता प्रकट करने के बाद भी वे उसे समझ नहीं पाते। अगले श्लोक में लोगों द्वारा उनकी महानता को न समझ पाने का कारण बताया गया है।

श्लोक / पद १३

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता : |
भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ||

हे कुन्तीपुत्र! लेकिन ज्ञानी, जो महान आत्माएँ हैं , जिन्होंने दिव्य स्वभाव प्राप्त कर लिया है, मुझे सभी वस्तुओं के उत्पत्ति का मूल कारण और अविनाशी जानकर, किसी और वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित किए बिना (मेरे प्रति) भक्ति में लीन हैं।

श्लोक / पद १४

सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता: |
नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ||

(वे ज्ञानी) सदैव भक्ति के साथ मेरे भक्तिपूर्वक गायन में लगे, , दृढ़ निश्चय के साथ , (मेरी पूजा करने में) प्रयास करते हैं, मुझे प्रणाम करते हैं, सदैव मेरे साथ रहने की इच्छा रखते हुए , मेरा ध्यान करते हैं।

अगले श्लोक में, कृष्ण बताते हैं कि कैसे कुछ लोग ज्ञान के माध्यम से उनकी पूजा करते हैं।

अगले ४ श्लोकों में, १६वें श्लोक से शुरू होकर १९वें श्लोक तक, कृष्ण बताते हैं कि कैसे इस संसार में उनके स्वरूप (अविभाज्य पहलू के रूप में) यज्ञ से संबंधित पहलू है।

अगले २ श्लोकों, २०वें और २१वें श्लोकों में, कृष्ण बताते हैं कि कैसे कुछ लोग केवल सांसारिक लाभों के पीछे भागते हैं।

श्लोक / पद २२

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जना: पर्युपासते |
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ||

उन महान आत्माओं के लिए जो बिना किसी अन्य लक्ष्य के, मेरे बारे में सोचते हैं, और पूर्ण रूप में मेरी पूजा करते हैं ( मेरे दिव्य गुण और संपत्ति के साथ ) और जो सदैव मेरे साथ रहना चाहते हैं, मैं उनको योग ( मुझ तक पहुँचने ) और क्षेम ( संसार में वापस न लौटना पड़े ) प्रदान करता हूँ |

श्लोक / पद २३

ये त्वन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयाऽन्विता: |
तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्त्यविधिपूर्वकम् ||

हे कुंतीपुत्र ! जो लोग अन्य देवताओं ( जैसे इंद्र , रुद्र, ब्रह्मा इत्यादि ) के प्रति श्रद्धा रखते हैं और ( उन्हें पूजनीय मानकर) यज्ञ इत्यादि रूप में निष्ठापूर्वक उनकी पूजा करते हैं , वे भी मेरी ही आराधना के लिये यज्ञ आदि कर रहे हैं लेकिन ऐसा कर रहे हैं जैसा कि वेदों में नहीं बताया गया है ( कि हर एक व्यक्ति यह समझकर यज्ञ में संलग्न होना चाहिए कि एम्बेरुमान् ही सभी देवताओं का अन्तर्यामी हैं ) |

श्लोक / पद २४

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च |
न तु मामभिजानन्ति तत्त्वेनातश्च्यवन्ति ते ||

मैं ही समस्त यज्ञों का भोक्ता और दाता हूँ | जो केवल पूर्व भाग (कर्मकांड संबंधी पहलूओं ) में लगे हुए हैं , मुझे वास्तव में ( वास करने वाली अन्तरात्मा के रूप में ) नहीं जानते और इसलिए वे मुख्य लाभों से वंचित रह जाते हैं |

अगले श्लोक में कृष्ण बताते हैं कि विभिन्न लक्ष्यों वाले व्यक्ति किस प्रकार अपने लक्ष्यों तक पहुंचते हैं।

श्लोक / पद २६

पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति |
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मन: ||

वह जो प्रेम से मुझे एक पत्ता, फूल, फल या पानी समर्पण करता है , मैं ऐसी सामग्री को स्वीकार करता /खाता / आनंद लेता हूँ जो उस पवित्र हृदय वाले व्यक्ति द्वारा प्रेमपूर्वक समर्पित की गई हो |

टिप्पणी : यहाँ कृष्ण के सौलभ्यता (आसानी से पहुँचने की क्षमता) के बारे में बताया गया है।

अगले श्लोक में, वह बताते हैं कि सब कुछ उन्हें अर्पण के रूप में किया जाना चाहिए।

२८वें श्लोक में, कृष्ण भक्ति योग करने के लाभ की घोषणा करते हैं।

श्लोक / पद २९

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योऽस्ति न प्रिय: |
ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि ते तेषु चाप्यहम् ||

मैं विभिन्न प्रजातियों के सभी प्राणियों के लिए समान (जो कोई मेरी शरण लेना चाहता है) हूँ ; मेरे लिये कोई भी मेरा आश्रय लेने से अयोग्य नहीं है ( क्योंकि वे हीन हैं ) और ( श्रेष्ठ होने के कारण ) कोई भी मेरी शरण में आने के योग्य नहीं है ; जो लोग मेरे प्रति भक्ति प्राप्त करने के लिए अपना प्रेम प्रकट करते हैं, वे मुझमें रहते हैं और मैं भी उनमें रहता हूँ (बहुत आदर से उनके साथ बातचीत करता हूँ ) |

श्लोक / पद ३०

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक् |
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स: ||

भले ही किसी के लक्षण/आचरण बहुत ही निम्न हो , यदि वह बिना किसी अन्य लाभ की इच्छा के मेरी पूजा करता है , वह ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ के समान ही अच्छा है; वह प्रशंसा का पात्र है | इसका कारण यह है कि उसको ( मुझ पर ) बहुत दृढ़ विश्वास और लगाव है |

अगले श्लोक में, कृष्ण बताते हैं कि कैसे उनका ऐसा भक्त थोड़े ही समय में गुणवान बन जाता है।

श्लोक / पद ३२

मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय: |
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम् ||

हे कुंतीपुत्र ! जिन्होंने निम्न योनियों में जन्म लिए हैं , जैसे औरत , वैश्य, क्षूद्र आदि भी पूर्ण समर्पण के द्वारा मुझे प्राप्त कर लेते हैं और वे भी परम लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं |

टिप्पणी : यहाँ औरत , वैश्य, शूद्र आदि को हीन जन्म के रूप में रेखांकित किये जाने का कारण, कर्म, ज्ञान और भक्ति योग में संलग्न होने के उनके अधिकार का अभाव है | वास्तव में , जैसे कि अगले श्लोक में बताया गया है, इस संसार (भौतिक क्षेत्र) में सभी जन्म अस्थायी और दुखद प्रकृति से बंधे हैं | भगवान यहाँ समझाते हैं और अंत में भी महत्त्व देते हैं कि शरणागति ही सबके लिए उचित साधन है |

अगले श्लोक में, वे कहते हैं कि ब्राह्मण और राजर्षि, यदि वे उनके प्रति समर्पित हैं, तो निश्चित रूप से लक्ष्य प्राप्त करेंगे।

श्लोक / पद ३४

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण: ||

अपना मन मुझ पर स्थिर करो | (और भी ) मेरे प्रति अधिक प्रेम रखो | (और भी ) मेरी पूजा करो | मुझे प्रणाम करो | मुझे अपने परम विश्राम स्थल के रूप में रखो | इस प्रकार मन/हृदय को प्रशिक्षित करने से तुम निश्चय ही मुझे प्राप्त करोगे |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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