२.२९ – आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक २८

श्लोक

आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनम् आश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनम् अन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्‌ ॥

पद पदार्थ

आश्चर्यवत् – आश्चर्य रूप में
एनं – इस आत्मा
कश्चित् एव – करोड़ों लोगों में एक
पश्यति – देखता है
तथा – इस प्रकार
आश्चर्यवत् (एनं ) – आश्चर्य रूप में होने के नाते ( यह आत्मा)
अन्यः (एव ) – करोड़ों लोगों में एक और
वदति – बात करता है
आश्चर्यवत् (एनं ) – आश्चर्य होने के नाते ( यह आत्मा)
अन्यः (एव ) – करोड़ों लोगों में एक और
श्रृणोति – सुनता है
श्रुत्वा अपि – सुनने के बाद भी
कश्चित्‌ एव च – एक भी
एनं – इस आत्मा
न वेद: – को समझता नहीं है

सरल अनुवाद

करोड़ों लोगों में एक, इस आत्मा को आश्चर्य रूप में देखता है ; करोड़ों लोगों में एक ही इस अद्भुत आत्मा के बारे में बात करता है ; करोड़ों लोगों में केवल एक, इस आश्चर्यजनक आत्मा के बारे में सुनता है ; मगर सुनने के बाद भी , एक भी इस विलक्षण आत्मा को [ सच्ची तरीके से ] समझता नहीं है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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