२.४७ – कर्मणि एवादिकारस् ते

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<< अध्याय २ श्लोक ४६

श्लोक

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि ॥

पद पदार्थ

ते – तुम , जो मुमुक्षु हो
कर्मणि इव  – केवल  नित्य (दैनिक) नैमित्तिक  (नियत काल ) कर्मों के लिए
अधिकार: –  इच्छा कर सकते हो ;
फलेषु – नीच परिणाम जैसे स्वर्ग आदि (जो ऐसे कर्मों के परिणाम के रूप में प्रमुख होते हैं)
कदाचित – कभी कभी
(अधिकारः) मा (भूत) –इच्छित योग्य नहीं।
कर्मपल हेतु: – कार्य और परिणाम का कारण
माभू: – तुम कभी नहीं होना ;
अकर्मणि – ऐसे कर्मों में निष्क्रिय होना जो मोक्ष की ओर ले जाते हैं
ते  – तुम्हारे लिए 
सङ्ग :- संबंध 
मास्तु – नहीं होना चाहिए

सरल अनुवाद

एक मुमुक्षु होने के नाते, तुम केवल नित्य (दैनिक) नैमित्तिक  (नियत काल ) कर्मों की इच्छा कर सकते हो ; निम्नतर परिणाम जैसे स्वर्ग आदि (जो ऐसे कर्मों के परिणाम के रूप में प्रमुख बताये जाते हैं) कभी भी इच्छित योग्य नहीं हैं ; तुम्हें मोक्ष की ओर ले जानेवाले कर्मों में  निष्क्रिय रहने में भी लगाव नहीं होना चाहिए | 

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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