२.५७ – यः सर्वत्रानभिस्नेहस्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

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श्लोक

यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

पद पदार्थ

यः- जो 
सर्वत्र – सभी (पसंद करने योग्य विषय )
अनाभिस्नेह: – बिना किसी  लगाव 
तत् तत् सुभाशुभम्   – वह वह  शुभ और अशुभ हालात 
प्राप्य – प्राप्त करने के बाद भी
न अभिनन्दति – स्तुति  नहीं (शुभ मामलों )
न द्वेष्टि – घृणित नहीं (अशुभ मामलों)
तस्य – उसका
प्रज्ञा – ज्ञान
प्रतिष्ठिता – दृढ़ रहता है (उसे भी स्थितप्रज्ञ के नाम से जाना जाता है)

सरल अनुवाद

जो सभी (प्रिय पहलुओं) से अलग है और जो उन शुभ और अशुभ पहलुओं को प्राप्त करने के बाद भी न स्तुति  (शुभ पहलुओं) और न द्वेष (अशुभ पहलुओं) करता  है, उसका ज्ञान स्थिर रहता है और उसे भी स्थितप्रज्ञ कहा जाता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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