२.२१ – वेदाविनाशिनं नित्यं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक २०

श्लोक

वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्‌ ।
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम्‌ ॥

पद पदार्थ

पार्थ – हे अर्जुन !
य: पुरुषः – वो आदमी
एनं – इस आत्मा (जीवात्मा )
अविनाशिनं – अविनाशी है
अजं – अजात है
अव्ययं – निर्दोष है
नित्यं – नित्य है
वेदा – जानते हुए भी
स: पुरुष: – वो आदमी
कथं – कैसे
हन्ति – हत्या करेगा ?
कं – वह आत्मा
कथं – कैसे
घातयति – (दूसरों के माध्यम से ) मौत का कारण बन सकता है

सरल अनुवाद

हे अर्जुन ! जो आदमी इस बात को जानते हुए भी कि आत्मा, अविनाशी ,अजात , नित्य और निर्दोष है ; कैसे उस आत्मा को मार सकता है या आत्मा के मौत का कारण बन सकता है ?

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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