५.१५ – नादत्ते कस्यचित् पापं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ५

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श्लोक

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं  विभुः ।
अज्ञानेनावृतं  ज्ञानं  तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥

पद पदार्थ

विभु: – जीवात्मा जो कई स्थानों में व्याप्त हो सकता है
कस्यचित् पापं –  (उनके  पुत्र आदि के समान प्रिय) लोगों के पाप 
न एव आदत्ते – नहीं हटाता
(कस्यचित्) सुकृतं च – ( जिन्हें वह शत्रु आदि के समान घृणा करता है ) लोगों का आनंद
न एव आदत्ते – नहीं हटाता
ज्ञानं – (उसके ) ज्ञान
अज्ञानेन – पहले किए गए पाप जो उस ज्ञान का बाधा है 
आवृतं – छिपाता है
जन्तव: – जीवात्मा जो देव, मनुष्य आदि शरीरों में कैद है
तेन – पहले किए गए पापों के कारण
मुह्यन्ति – भ्रमित होता है  (शरीर को आत्मा समझना आदि)

सरल अनुवाद

जीवात्मा, जो अनेक स्थानों में व्याप्त हो सकता है, पाप (उन लोगों के, जो उसे पुत्र आदि के समान प्रिय है ) या पुण्य (उन लोगों के, जिन्हें वह शत्रु आदि के समान घृणा करता है) को नहीं हटाता । जीवात्मा,  जिसका पहले किए गए पाप, बाधा बनकर उसके ज्ञान को छिपाता है , जो ऐसे पहले किए गए पापों के कारण देव, मनुष्य आदि जैसे शरीरों में कैद है, वह (शरीर को आत्मा आदि समझकर )भ्रमित हो जाता है ।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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