श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय ३ (कर्म योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

अध्याय २

गीतार्थ संग्रह के सातवे श्लोक में स्वामी आळवन्दार् , भगवद्गीता के तीसरे अध्याय की सार को दयापूर्वक समझाते हैं , ” तीसरे अध्याय में समझाया गया है कि लोगों ( जिनको ज्ञान योग पालन करने की योग्यता नहीं है ) की रक्षा करने के लिए, अपने कर्तव्य जो तीन गुणों से प्रभावित है – सत्व (शांति) , रजस (अनुराग) और तमस (अज्ञानता ) पर ध्याननिष्ठ , इस कर्तव्य को सर्वेश्वर को अर्पण करते हुए , मोक्ष के अलावा किसी और उद्देश्य से आसक्ति मुक्त , विहित कर्तव्य का पालन करना चाहिए | “

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

अर्जुन उवाच
ज्यायसी चेत् कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥

(अर्जुन ने  कहा, ) हे जनार्दन! हे केशव! यदि तुम्हारा मजबूत राय है कि युद्ध आदि क्रूर कर्मों की अपेक्षा, ज्ञान में स्थित होना ही श्रेष्ठ है, तो फिर तुम मुझे ऐसे युद्ध में क्यों आग्रह कर रहे हो ?

टिप्पणी : पहले दो श्लोक में अर्जुन, श्री कृष्ण से प्रश्न पूछता है, उसे युद्ध में लड़ने के बारे में जो उसका कर्म योग है, जब कभी ज्ञान योग उससे बेहतर माना जाता है |

श्लोक / पद ३

श्री भगवान् उवाच
लोकेSस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां
कर्मयोगेन योगिनाम् ॥

हे निष्पाप! विभिन्न प्रकार के व्यक्तित्वों से भरे हुए इस संसार में दो प्रकार की अवस्थाओं के बारे मे (उपस्थिति की) मैंने (जो परम दयालु है, जो सिद्धांतों को जैसा है वैसा ही समझाता है) पिछले अध्याय में अच्छे ढंग से बताया है; (वे ) विद्वत सहित लोगों के लिए ज्ञान योग की स्थिति (जो स्वयं पर केंद्रित है और सांसारिक सुखों से आकर्षित नहीं होती है) और  कर्म योग के पात्र लोगों के लिए कर्म योग की स्थिति  (जिनके पास उस प्रकार की बुद्धि है जो सांसारिक सुखों में रुचि रखता है)।

टिपण्णी : यह विवक्षित है कि कृष्ण कह रहे हैं, ” क्योंकि मैं इन दोनों स्थितियों को, मनुष्यों के पात्रता के आधार पर वर्गीकृत कर चुका हूँ , मेरे शब्दों में कोई परस्पर विरोध नहीं है | “

श्लोक / पद ४

न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्म्यं  पुरुषोSश्नुते ।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥

कोई भी मनुष्य (जो इस संसार में रहता है) कर्मयोग शुरू करने में लगाव न होने के कारण ज्ञानयोग प्राप्त नहीं कर पाएगा; और (जो प्रारम्भ किया गया कर्मयोग को), त्याग देता है, उसे भी  ज्ञानयोग, (जो कर्मयोग का परिणाम है) प्राप्त नही होगा । 
(इसका तात्पर्य यह है कि जिसका मन अशांत हो ,वह, केवल कर्मयोग का,  जो सर्वोच्च भगवान की एक प्रकार की पूजा  है, पालन करने के बाद ही, उसकी मानसिक अशांति समाप्त होगी और वह उचित ज्ञान में स्थित होगा)।

टिप्पणी : यह विवक्षित है कि वह जिसका मन व्याकुल है , कर्म योग , जो सर्वेश्वर की उपासना का एक मार्ग है, का पालन करने के बाद ही उसका मानसिक अशांति दूर होगा और वह सम्यक ज्ञान पर स्थित रहेगा |

श्लोक / पद ६

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

जो व्यक्ति ज्ञान [योग] पर ध्यान केंद्रित हो, अपने कर्मेन्द्रियों जैसे मुंह, वाणी, हाथ, पैर आदि को अच्छी तरह से नियंत्रित करता है (ताकि वे विषयी सुखों में ग्रस्त न हो ), लेकिन जिसके दिल/दिमाग में आत्म ज्ञान का अभाव है, और  वह अपने मन में इंद्रियों के लिए भोजन बने विषयी सुखों के बारे में सोचता रहता हो, उसका अनुशासन दोषपूर्ण  कहा जाता है।

टिप्पणी : इस श्लोक से आरम्भ , श्री कृष्ण ज्ञान योग से कर्म योग की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं |

श्लोक / पद ९

यज्ञार्थात्कर्मणोSन्यत्र लोकोSयं कर्मबन्धनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसङ्ग: समाचर ॥

यज्ञ के अलावा अन्य कर्मों में लगाव होने पर ही यह संसार कर्मों से बंधता है। (इस प्रकार) हे अर्जुन! तुम यज्ञ के अंतर्गत आने वाले कर्मों को मोह से रहित, करते रहो ।

दसवीं श्लोक से आरम्भ , श्री कृष्ण , भगवान के शब्दों पर प्रकाश डालते हैं , जहाँ भगवान यज्ञ करने के बारे में प्रकाशित कर रहे हैं , जो कर्म योग ( सर्वेश्वर की उपासना का एक मार्ग ) का एक अंग है |

श्लोक / पद १३

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात् ॥

वे अच्छे लोग, जो यज्ञ के अवशेष (जो भगवान की पूजा का हिस्सा है) को खाते हैं, वे सभी पापों से  (जो आत्म-प्राप्ति में बाधक हैं) मुक्त हो जाते हैं; लेकिन वे पापी जो केवल अपनी भूख मिटाने के लिए पकाते और खाते हैं, वे वास्तव में पाप को खा रहे हैं।

सत्तरहवीं श्लोक से लेकर , कुछ श्लोकों में श्री कृष्ण इस विषय पर महत्त्व देते हैं कि अर्जुन आत्म साक्षात्कार पाने के लिए कर्म योग पर ही लगे रहना चाहिए |

बीसवीं श्लोक में श्री कृष्ण समझाते हैं कि कैसे जनक महाराज कर्म योग का पालन करते मोक्ष प्राप्त किया था |

श्लोक / पद २१

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः।
स यत्प्रमाणं  कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

एक उत्तम (ज्ञान और अनुष्ठान में) व्यक्ति जो कार्य करता है, सामान्य लोग भी वही कार्य करते हैं। वह श्रेष्ठ व्यक्ति जिस प्रकार से उन कार्यों को करता है, संसार के सामान्य मनुष्य भी उसी का अनुसरण करते हैं।

अगले दो श्लोकों में श्री कृष्ण समझाते हैं कि वे , जिनको कोई बंधन नहीं है, कर्म योग क्यों करते हैं |

श्लोक / पद २७

प्रकृतेः क्रियमाणानि गुणैः कर्माणि सर्वशः ।
अहंकार विमूढात्मा कर्ताऽहमिति मन्यते ॥

जिसका आत्मा प्रकृति के तीन गुणों ( सत्व, रजस, तमस ) के कारण, अहंकार ( शरीर को आत्मा समझना ) से व्यापित हो , वो किये जाने वाले ( उन तीन गुणों के अनुसार ) कर्मों ( सारे कार्य ) के प्रति ” मैं इस कार्य को करता हूँ ” इस प्रकार सोचकर व्याकुल हो जाता है |

श्लोक / पद ३०

मयि सर्वाणि कर्माणि सन्नयस्याध्यात्मचेतसा ।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः ॥

आत्मा के बारे में परिपूर्ण ज्ञान के साथ, सारे कर्तव्य को मुझमे ( मैं जो सबका अन्तर्यामी हूँ ) अच्छी तरह से अर्पित करके , कर्म फल के प्रति बिना कोई राग , बिना सोचे कि ” यह मेरा कर्म है ” ,प्राचीन काल से संग्रहित पापों से चिंतारहित बनके, इस युद्ध में भाग लो |

अंतिम समूह के श्लोक में श्री कृष्ण समझाते हैं कि ज्ञान योग को निभाना कठिन है और उसको निभाते समय गलतियां करने की अधिक संभावना है |

श्लोक / पद ३५

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात्‌ ।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः ॥

(वो मनुष्य जो अचित तत्व / शरीर से जुड़ा हो ) कर्म योग, जो स्वाभाविक माध्यम है, का दोष से भरपूर अभ्यास, ज्ञान योग,जो दूसरों के लिए उचित है , का दोषरहित अभ्यास से बेहतर है (अपरिचय होने के कारण ) | कर्म योग, जो स्वधर्म है, के अभ्यास करते हुए मर जाना ( इस जन्म में स्वधर्म का फल प्राप्त किये बिना ) सर्वश्रेष्ठ है ; मगर ज्ञान योग जो दूसरों के लिए उचित हो, भय उत्पन्न करता है | ( गलत ढंग से अभ्यास करने से विनाश हो सकता है |)

टिप्पणी : यहाँ कुछ लोग गलत समझते हैं कि स्वधर्म का अर्थ है अपने वर्णाश्रम के अनुसार धार्मिक गतिविधियां | मगर यह श्लोक अर्जुन के कर्म योग और ज्ञान योग के बीच की भ्रांति के बारे में है, श्री कृष्ण स्पष्ट करते हैं कि , अर्जुन जैसे व्यक्ति को , ज्ञान योग जो उसके लिए स्वाभाविक नहीं है, से बेहतर है कर्म योग का अनुशासन करना, जो उसके लिए स्वाभाविक है |

श्लोक / पद ४३

एवं बुद्धेः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥

हे बलिष्ठ भुजाओं वाला ! इस प्रकार, यह जानते हुए कि वासना अटल दृढ़ से भी बड़ा है ( स्वज्ञान का अवरोध करने में ), दृढ़ ज्ञान से अपने मन को नियंत्रण करके (कर्म योग की अभ्यास में) , वासना (अभिलाषा) नाम शत्रु का नाश करो |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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