६.३२ – आत्मौपम्येन सर्वत्र

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

आत्मौपम्येन सर्वत्र  समं  पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं  वा यदि वा दु:खं  स योगी परमो मतः ॥

पद पदार्थ

अर्जुन – हे अर्जुन!
सर्वत्र –  सभी जगह में
आत्मौपम्येन – क्योंकि  आत्मा में समानता है (जैसे कि पहले बताया गया है)
सर्वत्र – स्वयं में और दूसरों के 
सुखं वा – खुशी (बच्चे को जन्म देने आदि)
यदि वा दु:खं – दुःख ( बच्चे का मृत्यु आदि )
य: – जो कोई भी
समम् – समान रूप से
पश्यति – देखता है
स: योगी – वह योगी
परम: मतः – श्रेष्ठ माना जाता है

सरल अनुवाद

हे अर्जुन!  क्योंकि सभी जगह में, आत्माओं में समानता है (जैसे कि पहले बताया गया है), जो भी स्वयं और दूसरों के खुशी (बच्चे को जन्म देने आदि) और दुःख (बच्चे का मृत्यु आदि) को समान रूप से देखता है, वह योगी श्रेष्ठ माना जाता है|

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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