११.३१ – आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ११

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श्लोक

आख्याहि मे को भवानुग्ररूपो नमोऽस्तु ते देववर प्रसीद।
विज्ञातुमिच्छामि भवन्तमाद्यं न हि प्रजानामि तव प्रवृत्तिम्।।

पद पदार्थ

देववर – हे देवताओं में श्रेष्ठ !
उग्र रूप भवान् – तुम जो अत्यंत उग्र रूप वाले हो
क: – तुम क्या करना चाहते हो ?
आद्यं भवन्तं – तुम्हारे बारे में, जो मूल कारण हो
विज्ञातुं – जानना
इच्छामि – चाहता हूँ
तव प्रवृत्तिं – तुम्हारी इच्छित गतिविधियों
न हि प्रजानामि – नहीं जानता हूँ
मे – मुझे
आख्याहि – कृपया मुझे वह बताएँ
ते नम: अस्तु – मेरा प्रणाम तुम्हें ही हो
प्रसीद – दया करो

सरल अनुवाद

हे देवताओं में श्रेष्ठ, अत्यंत उग्र रूप वाले ! तुम क्या करना चाहते हो ? मैं तुम्हारे बारे में जानना चाहता हूँ, जो मूल कारण हो । मैं तुम्हारी इच्छित गतिविधियों को नहीं समझ पा रहा हूँ। कृपया मुझे वह बताएँ। मेरा प्रणाम तुम्हें ही हो। दया करो।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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