श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीतार्थ संग्रह के बाईसवें श्लोक में आळवन्दार स्वामीजी अठारहवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “अंत में, अर्थात् अठारहवें अध्याय में – यह कहा गया है कि [सभी] कार्य भगवान द्वारा स्वयं किये जाते हैं, सत्व गुण (शांति का गुण) का अनुसरण करना चाहिए और मोक्ष ऐसी शांत गतिविधियों (इन सिद्धांतों के साथ किए गए) का परिणाम है। भक्ति और प्रपत्ति जो इस गीता शास्त्र का सार हैं, उनका भी वर्णन किया गया है”।
मुख्य श्लोक / पद
अर्जुन उवाच
संन्यासस्य महाबाहो तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्।
त्यागस्य च हृषीकेश पृथक्केशिनिषूदन।।
अर्जुन ने कहा – हे महाबाहो! हे इन्द्रियों को वश में करने वाले! हे केशी नामक राक्षस के संहारक! मैं संन्यास (त्यजन, जिसे उपनिषदों में मोक्ष के साधन के रूप में समझाया गया है) और त्याग के बारे में सत्य जानना चाहता हूँ और क्या वे एक दूसरे से भिन्न हैं (या एक ही हैं)।
अगले दो श्लोकों में, कृष्ण पहले श्लोक में उठाए गए प्रश्न के संबंध में कई बुद्धिमान व्यक्तियों के मतों की व्याख्या करते हैं। कुछ लोग कहते हैं कि सांसारिक लाभ के उद्देश्य से किए गए कार्यों को पूरी तरह से त्याग देना ही संन्यास है। कुछ लोग कहते हैं कि फलों का त्याग करना ही संन्यास है। कुछ लोग कहते हैं कि दोषपूर्ण कार्यों को त्यागा जा सकता है। कुछ लोग कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप को कोई भी कभी नहीं छोड़ सकता।
चौथे श्लोक से कृष्ण इस विषय पर अपना मत स्पष्ट करना शुरू करते हैं।
यज्ञदानतपःकर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्।
यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।।
यज्ञ, दान, तप जैसे वैधिक कर्मों को (मुमुक्षुओं द्वारा) छोड़ा नहीं जा सकता; उन्हें (अंत तक) करना चाहिए; (क्योंकि) वे मोक्ष की इच्छा रखने वाले उपासकों के लिए शुद्धिकरण करने वाले कार्य हैं (जो उपासना को पूरा करने में आने वाली दीर्घकालिक बाधाओं को दूर करते हैं)।
अगले श्लोक में वे कहते हैं कि इन कर्मों को कर्तापन, स्वामित्व और परिणाम की आसक्ति के बिना किया जाना चाहिए।
नियतस्य तु संन्यासः कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामसः परिकीर्तितः।।
नित्य (दैनिक), नैमित्तिक (आवधिक) आदि कर्मों का परित्याग उचित नहीं है; भ्रम (यह सोचकर कि कर्म दोषपूर्ण है) के कारण ऐसे कर्म का परित्याग करना, कहा जाता है कि यह तामस गुण (अज्ञानता का गुण) के कारण होता है।
८वें और ९वें श्लोक में राजस गुण के कारण कर्मों का परित्याग करने तथा सत्वगुण के कारण कर्तापन का त्याग तथा कर्मफल की परित्याग करने के बारे में समझाया गया है।
१०वें श्लोक में कर्तापन का त्याग करने वाले का स्वरूप की व्याख्या की गई है।
११वें श्लोक में बताया गया है कि जो कर्तापन तथा फल का त्याग करता है, उसे “त्यागी” कहते हैं।
१२वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसे त्यागियों को कर्मफल का अनुभव नहीं होता तथा अन्यों को उनके कर्मफल का अनुभव मिलता है।
१३वें से १५वें श्लोक में आत्मा द्वारा किए गए कर्म के पांच कारण बताए गए हैं: १) शरीर, २) आत्मा, ३) मन तथा पांच कर्मेन्द्रियां, ४) प्राण तथा ५) परमात्मा।
१६वें और १७वें श्लोक में वे उन सभी लोगों की स्थिति बताते हैं जो कर्तापन को नहीं समझ रहे हैं तथा जो कर्तापन को सही ढंग से समझते हैं।
१८वें श्लोक में वे वैधिक कर्म (वेद में स्वीकृत कर्म) की प्रकृति बताते हैं। कर्म के तीन पहलू हैं – कर्म के बारे में ज्ञान, कर्म और कर्ता।
१९वें श्लोक में वे बताते हैं कि ये सभी पहलू तीन गुणों (सत्व, रजस् और तमस्) के आधार पर भिन्न होते हैं।
२०वें से २२वें श्लोक तक तीनों गुणों से युक्त ज्ञान की व्याख्या की गई है।
२३वें से २५वें श्लोक तक तीन गुणों से युक्त कर्म की व्याख्या की गई है।
२६वें से २८वें श्लोक तक तीन गुणों से युक्त कर्ता की व्याख्या की गई है।
२९वें श्लोक में उन्होंने कहा है कि बुद्धि और धृति भी तीन गुणों से युक्त हैं।
३०वें से ३२वें श्लोक तक तीनों गुणों से युक्त बुद्धि का वर्णन किया गया है।
३३वें से ३५वें श्लोक तक तीनों गुणों के स्वरूप में दृढ़ स्थिति का वर्णन किया गया है।
३६वें श्लोक में उन्होंने कहा है कि आनन्द भी तीन गुणों के स्वरूप में है।
३७वें से ३९वें श्लोक तक तीनों गुणों के स्वरूप में आनन्द की व्याख्या की गई है।
४०वें श्लोक में वे इस चर्चा का समापन करते हुए कहते हैं कि इस संसार में ऐसा कोई नहीं है जो तीनों गुणों से मुक्त हो।
ब्राह्मणक्षत्रियविशां शूद्राणां च परन्तप |
कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः ||
हे शत्रुओं को सताने वाला! ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के गुण जो (पिछले) कर्म और उनकी गतिविधियों के आधार पर प्राप्त किए गए हैं, उन्हें व्यक्तिगत रूप से (शास्त्र में) उजागर किया गया है।
४२वें से ४४वें श्लोक तक प्रत्येक वर्ण के व्यक्तियों के स्वभाव और गुणों का वर्णन किया गया है।
स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नर: |
स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु ||
अपने वर्ण के अनुसार कर्मों में ग्रस्त व्यक्ति मोक्ष का फल प्राप्त करता है; अब (तुम मुझसे ) सुनो कि जो अपने वर्ण के अनुसार कर्म करता है, वह किस प्रकार मोक्ष का फल प्राप्त करता है।
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वम् इदं ततम् |
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव: ||
जो मनुष्य अपने वर्ण और आश्रम के अनुसार उस परमपुरुष की पूजा करता है, जिससे हर वस्तु के सृष्टि आदि सब क्रियाएँ उभरते हैं , जिससे ये सभी सत्ताएँ व्याप्त हैं, वह मुझे , जो सर्वोच्च लक्ष्य है, प्राप्त करता है।
४७वें श्लोक में वे कहते हैं कि कमियों के साथ कर्म योग करना, ज्ञान योग को पूरी तरह से अपनाने से बेहतर है, क्योंकि कर्म योग स्वयं के लिए स्वाभाविक है।
४८वें श्लोक में वे कहते हैं कि जो लोग ज्ञान योग के योग्य हैं, उन्हें भी कर्म योग करना चाहिए।
४९वें श्लोक में वे कहते हैं कि कर्म योग करने से ज्ञान योग का परिणाम प्राप्त होगा, जो ध्यान पर केंद्रित होना है।
५०वें श्लोक में वे कहते हैं कि ऐसा उत्तम ध्यान आत्म-साक्षात्कार की ओर ले जाता है।
५१वें से ५३वें श्लोक में वे ध्यान की प्रक्रिया बताते हैं।
ब्रह्मभूत: प्रसन्नात्मा न शोचति न काङ्क्षति |
सम: सर्वेषु भूतेषु मद्भक्तिं लभते पराम् ||
जो व्यक्ति आत्मा के वास्तविक स्वरूप को जानकर,अविचलित मन युक्त , जो (मेरे अतिरिक्त) न किसी वस्तु की शोक करता है, (मेरे अतिरिक्त) न किसी वस्तु की कामना करता है; (मेरे अतिरिक्त) समस्त पदार्थों के प्रति समभाव रखता है, वह मेरे प्रति सर्वोच्च भक्ति को प्राप्त करता है।
टिप्पणी: इस श्लोक में पर भक्ति की अवस्था प्राप्त करने के बारे में समझाया गया है। हमारे संप्रदाय में भक्ति की तीन अवस्थाएँ बताई गई हैं – पर भक्ति (शुद्ध ज्ञान की अवस्था जहाँ भगवान से मिलन आनंदमय और वियोग दुःखदायी होता है); पर ज्ञान (दर्शन की अवस्था – आंतरिक दृष्टि से भगवान को पूर्ण रूप से देखना); परम भक्ति (भगवान से वियोग सहन न करने की अवस्था – परमपद में भगवान तक पहुँचने से ठीक पहले)।
भक्त्या मामभिजानति यावान्यश्चास्मि तत्त्वतः |
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम् ||
जो पुरुष (पूर्व में बताई गई) पर भक्ति के द्वारा मुझे सच में ऐसे स्वभाव, मनोभाव, गुण और ऐश्वर्य का, जानता है, वह मुझे यथार्थ रूप से जानकर, तत्पश्चात् परमभक्ति के द्वारा मुझे पूर्ण रूप से प्राप्त करता है।
टिप्पणी: इस श्लोक में पर ज्ञान और परम भक्ति की व्याख्या की गई है।
५६वें श्लोक में वे कहते हैं कि जो लोग वर्णाश्रम के अनुसार कार्य करते हैं, वे अंततः पर भक्ति, पर ज्ञान और परमभक्ति प्राप्त कर लेते हैं और उनके पास पहुँचते हैं।
५७वें श्लोक में वे अर्जुन को आदेश देते हैं कि वह कर्तापन, स्वामित्व और परिणाम का विचार किए बिना उन्हें अर्पण करके युद्ध करें।
५८वें श्लोक में वे कहते हैं कि यदि अर्जुन उनके निर्देशों के अनुसार कार्य करता है, तो अर्जुन संसार में आने वाले कष्टों से पार हो जाएगा, और यदि अर्जुन ऐसा नहीं करता तो इससे उसका विनाश होगा।
५९वें और ६०वें श्लोक में वे कहते हैं कि अर्जुन किसी भी स्थिति में युद्ध से बच नहीं सकता।
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति |
भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ||
हे अर्जुन! वासुदेव जो सभी को नियंत्रित करते हैं, इस शरीर नामक यंत्र में, जो प्रकृति का प्रभाव है, सभी प्राणियों के हृदय में (जो ज्ञान का मूल है) स्थित, उनको सत्व, रजस् , तमस् आदि गुणों के अनुसार इस माया (संसार) में, जो उन गुणों से परिपूर्ण हैं, कर्म कराते रहते हैं ।
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत |
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम् ||
हे भरत कुल के वंशज! सभी प्रकार से परमेश्वर का (मेरा) अनुसरण करो; उनकी कृपा से तुम सभी बंधनों से मुक्ति पाओगे और परमपद को प्राप्त करोगे जो मोक्ष का शाश्वत धाम है |
६३वें श्लोक में वे अपने उपदेश समाप्त करते हैं और अर्जुन से कहते हैं कि वह इस पर विचार करे और अपनी इच्छानुसार कार्य करे।
६४वें श्लोक में, अर्जुन के प्रति प्रेम के कारण, वे पुनः अत्यंत गुप्त भक्ति योग का उपदेश आरंभ करते हैं।
मन्मना भव मद्भक्तो मध्याजि मां नमस्कुरु |
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे ||
अपना मन निरंतर मुझमें केन्द्रित कर, (इस से भी ) मुझमें गहरा प्रेम रखकर,(इस से भी) मेरे उपासक बनकर , (मन, वाणी और शरीर जैसे तीनों माध्यमों से) मुझे नमस्कार करो; (इस प्रकार करने से) तुम अवश्य मेरे पास पहुँचोगे, यह सत्य है , ऐसा मैं प्रतिज्ञा करता हूँ (क्योंकि) तुम मुझे प्रिय हो।
सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणं व्रज |
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच: ||
तुम सभी साधनों को पूर्णतया त्यागकर मुझे ही अपना एकमात्र साधन समझो , मैं तुम्हें सभी पापों से मुक्त करूँगा , शोक मत करो।
टिप्पणी: एम्पेरुमानार (श्री रामानुज) ने इस श्लोक की दो अलग-अलग तरह से व्याख्या की है। दोनों व्याख्याओं में, प्रपत्ति (समर्पण) को भक्ति योग का अंग (सहायक पहलू) माना गया है। उन्होंने इसे इस तरह से समझाया क्योंकि गीता भाष्य के श्रोता वे सभी हैं जो वेदान्त का पालन करते हैं। लेकिन अपने गद्य त्रयं (विशेष रूप से शरणागति गद्य) में, जो विशेष रूप से श्रीवैष्णव संप्रदाय के अनुयायियों के लिए लक्षित है, उन्होंने शरणागति का गूढ़ अर्थ भगवान को मुक्ति के एकमात्र साधन के रूप में स्वीकार करना बताया।
पहला स्पष्टीकरण
जब कृष्ण ने पिछले श्लोक में भक्ति योग की व्याख्या की, तो अर्जुन ने भक्ति योग करने की कठिनाई के बारे में सोचकर दुःखी होने लगा , क्योंकि अनगिनत पाप उसके लक्ष्य तक पहुँचने में बाधा बन रहे थे। इसलिए, कृष्ण कहते हैं “यदि तुम तीन प्रकार के (कर्तापन, स्वामित्व और फल ) त्याग के साथ कर्म, ज्ञान, भक्ति योग करते हो, और मुझे ऐसी पूजा के प्रेरक, पूजा का विषय और पूजा का भोक्ता मानते हो, और ऐसी पूजा करने में आने वाली बाधाओं को दूर करने के साधन के रूप में मुझे धारण करते हो, तो मैं तुम्हारे लिए उन बाधाओं को दूर कर दूँगा; शोक मत करो”।
दूसरा स्पष्टीकरण
जब कृष्ण ने पिछले श्लोक में भक्ति योग की व्याख्या की थी, तो यह स्पष्ट था कि भक्ति योग को आगे बढ़ाने में बाधाएँ थीं, जिससे अर्जुन के हृदय में दुःख हुआ। ऐसा इसलिए है, क्योंकि बाधाओं को दूर करने के लिए प्रायश्चित करना अनिवार्य है। प्रायश्चित करने में बहुत अधिक प्रयास को देखते हुए, अर्जुन शोक करने लगता है। कृष्ण कहते हैं, तुम उन अनुष्ठानों को छोड़ सकते हो जिन्हें प्रायश्चित के रूप में किया जाता है और उनके बदले मेरा ध्यान करो और मुझे समर्पण करो । मैं उन पापों को (उन अनुष्ठानों से कहीं अधिक शीघ्र) नष्ट कर दूँगा और इसलिए तुम्हें शोक करने की आवश्यकता नहीं है।
इदं ते नातपस्काय नाभक्ताय कदाचन |
न चाशुश्रूषवे वाच्यं न च मां योऽभ्यसूयति ||
यह शास्त्र (जो मैंने तुम्हें गोपनीय रूप से समझाया था) तुम्हारे द्वारा उसे नहीं कहना चाहिए जिसने तपस्या नहीं की है; इसे उससे कभी नहीं कहना चाहिए जो (तुम्हारे और मेरे प्रति) भक्तिमान नहीं है ;इसे उससे नहीं कहना चाहिए जो सुनने में इच्छुक नहीं है तथा इसे उससे भी नहीं कहना चाहिए जो मुझसे घृणा करता है।
य इदं परमं गुह्यं मद्भक्तेश्वभिधास्याति |
भक्तिं मयि परां कृत्वा मामेवैष्यत्यसंशय: ||
जो मनुष्य इस अत्यन्त गोपनीय शास्त्र को मेरे भक्तों को समझाता है, वह मुझमें परम भक्ति में लीन होगा और मुझे ही प्राप्त करेगा ; यह निसंदेह है।
न च तस्मान् मनुष्येषु कश्चिन्मे प्रियकृत्तम: |
भविता न च मे तस्मादन्यः प्रियतरो भुवि ||
इस संसार में मनुष्यों में इस शास्त्र को समझाने वाले के अतिरिक्त मुझे कोई और अधिक प्रिय सेवा करने वाला नहीं है, तथा भविष्य में भी उसके अतिरिक्त अधिक प्रिय कोई और नहीं होगा ।
अध्येष्यते च य इमं धर्म्यं संवादमावयो: |
ज्ञानयज्ञेन तेनाहमिष्ट: स्यामिति मे मति: ||
यह मेरा अभिमत है कि जो मनुष्य हम दोनों के बीच हुए मोक्ष प्राप्ति साधनों के विषय में इस सम्भाषणरूपी शास्त्र को पढ़ता है, उसके द्वारा इस शास्त्र में बताये गए ज्ञान यज्ञ से मेरी आराधना की गई है।
श्रद्धावान् अनसूयुश्च श्रुणुयादपि यो नर: |
सोऽपि मुक्त: शुभान् लोकान् प्राप्नुयात् पुण्य कर्मणाम् ||
जो मनुष्य सुनने की इच्छुक है, ईर्ष्या से रहित है और जो केवल इस शास्त्र को सुनता है, वह भी (उन पापों से जो मेरी भक्ति शुरू करने में बाधक हैं) मुक्त होकर, बहुत से पुण्य कर्म किए (मेरे) भक्तों की शुभ समूह को प्राप्त करेगा।
७२वें श्लोक में कृष्ण अर्जुन से पूछते हैं कि क्या इस शास्त्र को सुनने के बाद उसके सभी संदेह दूर हो गए।
अर्जुन उवाच-
नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत् प्रसादान्मयाઽच्युत |
स्थितोऽस्मि गतसन्देह: करिष्ये वचनं तव ||
अर्जुन कहता है , हे अच्युत! तुम्हारी कृपा से मेरा विपरीत ज्ञान नष्ट हुआ ; मेरे द्वारा सच्चा ज्ञान प्राप्त हुआ ; मैं संशय से मुक्त होकर सत्य की अनुभूति के साथ दृढ़ खड़ा हूँ; तुम्हारे निर्देशानुसार (युद्ध लड़ने का) कार्य करूँगा ।
७४वें श्लोक में संजय श्री गीता शास्त्र का समापन यह कहते हुए करते हैं कि “मैंने कृष्ण और अर्जुन के बीच यह अद्भुत वार्तालाप सुना ”।
७५वें श्लोक में वे कहते हैं कि उन्होंने यह वार्तालाप व्यास ऋषि की कृपा से, सबसे अद्भुत कृष्ण से सीधे सुना।
७६वें और ७७वें श्लोकों में वे धृतराष्ट्र से कहते हैं कि जब भी वे इस अद्भुत वार्तालाप के बारे में सोचते हैं और जब भी वे कृष्ण के विश्वरूप के बारे में सोचते हैं, तो वे आनंदित हो जाते हैं।
यत्र योगेश्वर: कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धर: |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम ||
जहाँ समस्त महिमाओं का नियन्त्रक श्री कृष्ण हैं, जहाँ धनुष धारण करने वाले अर्जुन हैं, वहाँ समस्त धन, विजय, महिमा और धर्म अच्छी तरह से स्थापित रहते हैं; यह मेरा मत है।
इस प्रकार “ श्री भगवद्गीता का सारतत्व ” श्रृंखला समाप्त होती है।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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