१२.१४ – सन्तुष्ट: सततं योगी

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १२

<< अध्याय १२ श्लोक १३

श्लोक

सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय: |
मय्यर्पित मनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स: मे प्रियः ||

पद पदार्थ

सन्तुष्ट:- सन्तुष्ट रहना
सततं योगी – जो सदैव स्वयं का ध्यान करता है
यतात्मा – नियन्त्रित मन वाला है
दृढ़ निश्चय: – दृढ़ ज्ञान/विश्वास होना (शास्त्र में जो बताया गया है)
मयि अर्पित मनो बुद्धि: – ऐसा हृदय जो मुझ पर और दृढ़ विश्वास पर केंद्रित हो
य: मद् भक्त: – वह जो मुझसे प्रेम करता है (कर्म योग में संलग्न होकर)
स:- वह
मे – मुझे
प्रिय:- प्रिय है

सरल अनुवाद

… जो संतुष्ट है, हमेशा आत्म-चिंतन करता है, नियंत्रित मन वाला है, दृढ़ ज्ञान/विश्वास रखता है (जैसा कि शास्त्र में बताया गया है), जिसके पास ऐसा हृदय हो , जो मुझ पर और दृढ़ विश्वास पर  केंद्रित है और जो मुझसे (कर्मयोग में संलग्न होकर) प्रेम करता है, वह मुझे प्रिय है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

>> अध्याय १२ श्लोक १५

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/12-14/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org