श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
समः शत्रौ च मित्रे च तथा मानावमानयो: |
शीतोष्णसुखदु:खेषु सम: सङ्गविवर्जित: ||
पद पदार्थ
शत्रौ च मित्रे च सम: – शत्रु और मित्र (जो समीप हैं) के प्रति सम भाव रखना
तथा – उसी प्रकार
मानावमानयो: (सम:) – वैभव और अपमान के प्रति समान होना
शीतोष्ण सुख दु:खेषु सम: – गर्मी और सर्दी, सुख और दुख के प्रति समान होना
(ऐसे मनोभाव का कारण)
सङ्ग विवर्जित: – सभी वस्तुओं से पृथक रहना
सरल अनुवाद
जो, सभी वस्तुओं से पृथक रहनेके कारण , शत्रु और मित्र (जो समीप हैं) के प्रति समान हो, उसी प्रकार वैभव और अपमान के प्रति समान हो और गर्मी और सर्दी, सुख और दुख के प्रति समान हो…
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
आधार – http://githa.koyil.org/index.php/12-18/
संगृहीत – http://githa.koyil.org
प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org