श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्लोक
ज्ञेयं यत् तत् प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वाऽमृतमश्नुते |
अनादि मत्परं ब्रह्म न सत्तन्नासदुच्यते ||
पद पदार्थ
यत् ज्ञात्वा – जिसे जानकर
अमृतम् अश्नुते – (आत्मा की) अविनाशी अवस्था प्राप्त होती है
यत् तत् ज्ञेयं – जानने योग्य ऐसे आत्मा के बारे में
प्रवक्ष्यामि – मैं तुम्हें अच्छे से समझाऊँगा
अनादि – आरम्भहीन (और अंतहीन)
मत्परं – मेरे अधीन/सेवक
ब्रह्म – महान
तत् – वह
न सत् न असत् उच्यते – इसे सत (प्रभाव अवस्था में आत्मा) या असत (कारण अवस्था में आत्मा) शब्द से नहीं जाना जाता है
सरल अनुवाद
मैं तुम्हें, जानने योग्य ऐसे आत्मा के बारे में अच्छे से समझाऊँगा , जिसे जानकर (आत्मा की) अविनाशी अवस्था प्राप्त होती है; वह आरम्भहीन (और अंतहीन) है, मेरे अधीन/सेवक है, महान है और इसे सत (प्रभाव अवस्था में आत्मा) या असत (कारण अवस्था में आत्मा) शब्द से नहीं जाना जाता है।
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
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