१३.१३ – सर्वत: पाणिपादं तत्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १३

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श्लोक

सर्वत: पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखम् |
सर्वतश्श्रुतिमल्लोके सर्वमावृत्य  तिष्ठति ||

पद पदार्थ

तत् – वह शुद्ध आत्मा
सर्वत: पाणिपादं – हाथों और पैरों की सभी गतिविधियाँ कर सकता है
सर्वतोऽक्षि शिरो मुखम् – आँखों, सिर और चेहरे की सभी गतिविधियाँ कर सकता है
सर्वत: श्रुति मत् – कानों की सभी गतिविधियों को हर जगह कर सकता है
लोके – संसार की
सर्वं – सभी सत्ताओं में
आवृत्य तिष्ठति – व्याप्त है

सरल अनुवाद

वह शुद्ध आत्मा, हाथों और पैरों, आंखों, सिर, चेहरे  और कानों की सभी गतिविधियों को हर जगह कर सकता है; वह संसार की सभी सत्ताओं  में व्याप्त है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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