१३.१४ – सर्वेन्द्रियगुणाभासं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १३

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श्लोक

सर्वेन्द्रियगुणाभासं  सर्वेन्द्रियविवर्जितम् |
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च ||

पद पदार्थ

सर्वेन्द्रिय गुणभासं – यह (आत्मा)इंद्रियों के कार्यों के द्वारा सभी विषयों को जानने में सक्षम है
सर्वेन्द्रिय विवर्जितम् – (अपनी प्राकृतिक अवस्था में) यह इंद्रियों के बिना भी सब कुछ जानने में सक्षम है
असक्तं – (स्वाभाविक रूप से) विभिन्न प्रकार के शरीरों जैसे देव, मनुष्य), तिर्यक (पशु) और स्थावर (पौधे) से जुड़ा नहीं है।
सर्वभृत् च एव – सभी प्रकार के शरीर धारण करने में सक्षम
निर्गुणं – (स्वाभाविक रूप से) सत्व (अच्छाई), रजस (चाव) और तमस (अज्ञान) जैसे गुणों से रहित
गुण भोक्तृ च – ऐसे गुणों का आनंद लेने में सक्षम

सरल अनुवाद

यह(आत्मा) इंद्रियों के कार्यों के द्वारा सभी विषयों को जानने में सक्षम है; (अपनी स्वाभाविक अवस्था में) यह इंद्रियों के बिना भी सब कुछ जानने में सक्षम है; यह (स्वाभाविक रूप से) विभिन्न प्रकार के शरीरों जैसे देव ,मनुष्य ,तिर्यक (पशु) और स्थावर (पौधे) से जुड़ा नहीं है; यह सभी प्रकार के शरीर धारण करने में सक्षम है; यह (स्वाभाविक रूप से) सत्व (अच्छाई), रजस (चाव) और तमस (अज्ञान) जैसे गुणों से रहित है; यह ऐसे गुणों का आनंद लेने में सक्षम है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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