१४.१७ – सत्त्वात् संजायते ज्ञानम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १४

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श्लोक

सत्त्वात् संजायते ज्ञानं रजसो लोभ एव च ​​|
प्रमादमोहौ तमसो भवतोऽज्ञानमेव च ​​||

पद पदार्थ

सत्त्वात् – केवल (प्रचुर मात्रा में) सत्वगुण द्वारा
ज्ञानं – ज्ञान (आत्म-साक्षात्कार सहित)
संजायते – अच्छी तरह से निर्मित होता है
रजस: – केवल (प्रचुर मात्रा में) रजोगुण द्वारा
लोभ: एव च – स्वर्ग आदि की इच्छा उत्पन्न होती है;
तमस: – केवल (प्रचुर मात्रा में) तमो गुण द्वारा
प्रमाद मोहौ – लापरवाही के कारण बुरे कर्मों में संलग्न होना, और (उसके परिणाम स्वरूप) विपरीत ज्ञान
भवत:- निर्मित होता है
अज्ञानम् एव च ​​- (उसके परिणामस्वरूप) अज्ञान भी उत्पन्न होता है

सरल अनुवाद

केवल (प्रचुर मात्रा में) सत्वगुण से ही, ज्ञान (आत्म-साक्षात्कार सहित) अच्छी तरह से निर्मित होता है; केवल (प्रचुर) रजोगुण से ही स्वर्ग आदि की इच्छा उत्पन्न होती है; केवल (प्रचुर) तमोगुण से, लापरवाही के कारण बुरे कर्मों में संलग्न होना, और (उसके परिणामस्वरूप) विपरीत ज्ञान और अज्ञान निर्मित होता है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी

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