१८.२५ – अनुबन्धं क्षयं हिंसाम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १८

<< अध्याय १८ श्लोक २४

श्लोक

अनुबन्धं क्षयं हिंसामनवेक्ष्य च पौरुषम्।
मोहादारभ्यते कर्म यत्तत्तामसमुच्यते।।

पद पदार्थ

यत् कर्म – जो कर्म
अनुबन्धं – उसके बाद आने वाले दुःख
क्षयं – धन की हानि
हिंसां – प्राणियों को (उसके कारण) होने वाले कष्ट
पौरुषं च – कार्य पूरा करने की स्वयं की क्षमता
अनवेक्ष्य – विश्लेषण किए बिना
मोहात् – यह जाने बिना (कि भगवान ही नियंत्रक हैं)
आरभ्यते – आरम्भ किया जाता है
तत् – उस कर्म को
तामसम् उच्यते – तामस कर्म कहा जाता है

सरल अनुवाद

जो कर्म उसके बाद आने वाले दुःख, धन की हानि, प्राणियों को (उसके कारण) होने वाले कष्ट और कार्य पूरा करने की स्वयं की क्षमता का विश्लेषण किए बिना तथा यह जाने बिना ( कि भगवान ही नियंत्रक हैं) आरम्भ किया जाता है, उस कर्म को तामस कर्म कहा जाता है।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

>> अध्याय १८ श्लोक २६

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/18-25/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org