६.२१ – सुखमात्यन्तिकं यत् तत्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

सुखमात्यन्तिकं यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् |
वेत्ति यत्र न चैवायं स्थितश्चलति तत्त्वत: ||

पद पदार्थ

अतीन्द्रियं – ज्ञानेन्द्रियों की पकड़ से परे
बुद्धि ग्राह्यं – केवल आत्म ज्ञान से समझा जा सकता है
यत् तत् – प्रसिद्ध
आत्यन्तिकं सुखं – आत्मानुभूति की पवित्र आनंद ( स्वयं का दर्शन )
यत्र वेत्ति – इस योग अभ्यास का आनंद लेते
यत्र स्थित: अयं – इस योग स्थिति में जो योगी है
तत्त्वत: – उस स्थिति से
नैव चलति – उससे अलग होने की इच्छा नहीं होगी

सरल अनुवाद

योग के उस स्थिति , जहाँ उस आत्मानुभूति की प्रसिद्ध पवित्र आनंद का भोग लिया जाता है , जो इन्द्रिय पकड़ से परे और केवल आत्म ज्ञान से समझा जा सकता है, जहाँ जब कोई योगी उस योग स्थिति में है , तो उस स्थिति से अलग होने की इच्छा नहीं होगी..

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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