६.४० – पार्थ नैवेह नामुत्र

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

<< अध्याय ६ श्लोक ३९

श्लोक

श्री भगवान उवाच
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाशस्तस्य विद्यते ।
न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति ॥

पद पदार्थ

श्री भगवान उवाच – श्री कृष्ण बोले
पार्थ – हे कुन्तीपुत्र!
तस्य – उस व्यक्ति के लिए जिसने योग करना शुरू किया, लेकिन बाद में चूक गया
इह – सांसारिक सुखों में
अमुत्र – मुक्ति के आनंद में
विनाश: – विनाश (अर्थात् जो वह चाहता था उसे प्राप्त नहीं करना, जो नहीं चाहता है उसे प्राप्त करना)
नैव विद्यते – घटित न हो:
तात – प्रिये !
कल्याणकृत कश्चित – जो आत्म-साक्षात्कार में लगा हुआ है
दुर्गतिं – अवांछनीय स्थिति
न हि गच्छति – प्राप्त नहीं होगा (यह स्पष्ट है)

सरल अनुवाद

हे कुन्तीपुत्र! जिसने योग करना शुरू किया, लेकिन बाद में चूक गया, उसके लिए सांसारिक सुखों में विनाश (अर्थात् जो वह चाहता था उसे प्राप्त नहीं करना, जो नहीं चाहता है उसे प्राप्त करना) और मुक्ति का आनंद नहीं होता है; प्रिये ! यह स्पष्ट है कि, जो आत्म-साक्षात्कार में लगा हुआ है, उसे अवांछनीय स्थिति प्राप्त नहीं होगा।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुजदासी

>> अध्याय ६ श्लोक ४१

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/6-40/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org