८.४ – अधिभूतं क्षरो भावः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ८

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श्लोक

अधिभूतं क्षरो भावः पुरुषश्चाधिदैवतम् ।
अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर ॥

पद पदार्थ

देहभृतां वर – हे देहधारियों में श्रेष्ट !
अधिभूतं – ऐश्वर्यार्थी ( जो लोग सांसारिक धन की इच्छा रखते हैं ) के लिए अधिभूतं
क्षर: भावः – ( श्रेष्ट ) शब्द इत्यादि हैं (सांसारिक सुख ) जो स्वाभाविक रूप से परिवर्तन के अधीन हैं
अधिदैवतं च – अधिदैवतं ( जो उनके द्वारा जाना जाता है )
पुरुष: – पुरुष ( ईश्वर) है जो स्वर्गीय आत्माओं जैसे इंद्र इत्यादि से भी महान है
अधियज्ञ: – अधियज्ञं ( जिसे तीनों श्रेणियों ऐश्वर्यार्थी , कैवल्यार्थी और भगवत् कैंकर्यार्थी द्वारा जाना जाता है )
अत्र देहे अहम् एव – मैं हूँ जिसकी पूजा यज्ञ के माध्यम से की जाती है , इंद्र इत्यादि स्वर्गीय आत्मा, जो मेरे शरीर हैं , उनके अन्तर्यामी हूँ |

सरल अनुवाद

हे देहधारियों में श्रेष्ट ! ऐश्वर्यार्थी ( जो लोग सांसारिक धन की इच्छा रखते हैं ) के लिए अधिभूतं ( श्रेष्ट ) शब्द इत्यादि हैं (सांसारिक सुख ) जो स्वाभाविक रूप से परिवर्तन के अधीन हैं ; अधिदैवतं ( जो ऐश्वार्यार्थी परिचित होना चाहिए ) पुरुष ( ईश्वर) है जो स्वर्गीय आत्माओं जैसे इंद्र इत्यादि से भी महान है | अधियज्ञं ( जिसे तीनों श्रेणियों अतार्थ ऐश्वर्यार्थी , कैवल्यार्थी और भगवत् कैंकर्यार्थी परिचित होना चाहिए ) मैं हूँ जिसकी पूजा यज्ञ के माध्यम से की जाती है , इंद्र इत्यादि स्वर्गीय आत्मा, जो मेरे शरीर हैं , उनके अन्तर्यामी हूँ |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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