४.४० – अज्ञश् चाश्रद्दधानश् च

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३९ श्लोक अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयात्मा विनश्यति ।नायं  लोकोऽस्ति न परो न सुखं संशयात्मनः ॥ पद पदार्थ अज्ञ: च – जो आत्म ज्ञान (जिसे विद्वानों के निर्देशों द्वारा प्राप्त किया जाता है) से रहित है अश्रद्दधान: – जिसकी रुचि नहीं है (ऐसे साधनों … Read more

४.३९ – श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३८ श्लोक श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं  तत्परः संयतेन्द्रियः ।ज्ञानं लब्ध्वा परां  शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥ पद पदार्थ श्रद्धावान् – जो इच्छुक  है (आत्मज्ञान को बढ़ाने में )तत्परः – उसमे पूरा ध्यानकेंद्रित होकर संयतेन्द्रियः – अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करना (अन्य पहलुओं से)ज्ञानं लभते – जल्द ही स्वयं … Read more

४.३८ – न हि ज्ञानेन सदृशं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३७ श्लोक न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते ।तत्स्वयं  योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति ॥ पद पदार्थ इह – इस दुनिया मेंज्ञानेन सदृशं – आत्म ज्ञान के समान पवित्रम् – शुद्ध करने वालान विद्यते – (कोई अन्य विकल्प)  नहीं हैतत्  – ऐसा ज्ञानस्वयं … Read more

४.३७ – यथैधांसि समिद्धोSग्निर्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३६ श्लोक यथैधांसि समिद्धोSग्निर्भस्मसात् कुरुतेऽर्जुन ।ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा ॥ पद पदार्थ अर्जुन – हे अर्जुन !समिद्धा : अग्नि: – भीषण आग एधांसि –  लकड़ीयथा भस्मसात्  कुरुते – जिस प्रकार राख में  बदल देता  है  तथा – उसी प्रकारज्ञान अग्नि: – ज्ञान … Read more

४.३६ – अपि चेदसि पापेभ्यः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३५ श्लोक अपि चेदसि पापेभ्यः सर्वेभ्यः पापकृत्तमः ।सर्वं  ज्ञानप्लवेनैव वृजिनं  सन्तरिष्यसि ॥  पद पदार्थ सर्वेभ्य:पापेभ्य: – सभी पापियों सेपापकृत्तमः: अपि चेत् असि – भले ही तुम बड़े पापी होसर्वं वृजिनं – वे सभी पापों के सागर ज्ञानप्लवेन एव – स्वयं के … Read more

४.३५ – यत् ज्ञात्वा न पुनर्मोहम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३४ श्लोक यत्  ज्ञात्वा  न पुनर्मोहं  एवं यास्यसि पाण्डव ।येन भूतान्यशेषेण द्रक्ष्यस्यात्मन्यथो मयि ॥ पद पदार्थ यत् – वह ज्ञानज्ञात्वा – जानकर पुन: – फिरएवं – इस प्रकारमोहं – व्याकुलता (जैसे कि शरीर को आत्मा समझ लेना आदि)न यास्यसि – … Read more

४.३४ – तद्विध्दि प्रणिपातेन

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३३ श्लोक तद्विध्दि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया ।उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं  ज्ञानिनस्तत्वदर्शिनः ॥ पद पदार्थ प्रणिपातेन – उचित ढंग से प्रणाम करकेपरिप्रश्नेन – उचित दृष्टिकोण से प्रश्न पूछकरसेवया – सेवा करकेतत् – वह दिव्य ज्ञानविध्दि – जानना (ज्ञानियों से)तत्त्व दर्शिनः:- जिन्हें आत्म … Read more

४.३३ – श्रेयान् द्रव्यमयाद् यज्ञात्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३२ श्लोक श्रेयान्द्रव्यमयाद्यज्ञात् ज्ञानयज्ञ: परन्तप ।सर्वं  कर्माखिलं  पार्थ ज्ञाने परिसमाप्यते ॥ पद पदार्थ परन्तप  – हे शत्रुओं का नाश करने वाले!द्रव्य मयाद् – सामग्रियों  पर आधारित कार्यों को अधिक महत्व देना यज्ञात्  – कर्म योग से ज्ञान यज्ञ: – कर्म योग में  ज्ञान … Read more

४.३२ – एवं बहुविधा यज्ञा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३१ श्लोक एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे ।कर्मजान्विध्दि तान्सर्वानेवं  ज्ञात्वा विमोक्ष्यसे ॥ पद पदार्थ एवं – इस प्रकारबहुविधा: – अनेक प्रकार केयज्ञा: – कर्मयोगब्रह्मण: मुखे – कर्म योग में जो आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने का एक साधन हैवितता:- उपस्थित हैंतान् … Read more

४.३१ – नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ४ << अध्याय ४ श्लोक ३०.५ श्लोक नायं  लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम ॥ पद पदार्थ कुरु सत्तम – हे कुरु वंश के वंशजों में श्रेष्ठ!अयज्ञस्य – जो नित्य/नैमित्तिक कर्म (दैनिक/विशिष्ट वैधिका गतिविधियों ) से रहित हैअयम लोक: न – सांसारिक लक्ष्य भी प्राप्त नहीं होतेअन्य: कुत: … Read more