५.२० – न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १९ श्लोक न प्रहृष्येत् प्रियं प्राप्य नोद्विजेत्प्राप्य चाप्रियम् |स्थिरबुद्धिरसम्मूढो ब्रह्मविद् ब्रह्मणि स्थित: || पद पदार्थ स्थिर बुद्धि: – शाश्वत आत्मा में ध्यान केंद्रितअसम्मूढ: – इस अस्थायी शरीर को आत्मा समझ, न मोहित होकरब्रह्मविद् – ( आचार्यों के निर्देशों से ) … Read more

५.१९ – इहैव तैर्जित: सर्गो

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १८ श्लोक इहैव तैर्जित: सर्गो येषां साम्ये स्थितं मन: |निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद् ब्रह्मणि ते स्थिता: || पद पदार्थ येषां मन: – वो जिनके मनसाम्ये – आत्माओं के समतुल्यता ( जैसे पिछले श्लोक में कहा गया था )स्थितं – … Read more

५.१८ – विद्या विनय सम्पन्ने

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १७ श्लोक विद्या विनय सम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि |शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन: || पद पदार्थ पण्डिता: – ज्ञानीविद्या विनय सम्पन्ने ( ब्राह्मणे ) – एक ब्राह्मण में , जिसमे ज्ञान और विनम्रता हैब्राह्मणे – और उस ब्राह्मण में … Read more

५.१७ – तद्बुद्धय: तदात्मान:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १६ श्लोक तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणा: |गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं ज्ञाननिर्धूतकल्मषा: || पद पदार्थ तद्बुद्धय: – पहले बताये गए आत्मानुभूति में दृढ़ रूप से केंद्रित होतदात्मान: – उस आत्मानुभूति में मन को पूरी तरह से संलग्न करते हुएतन्निष्ठा: – दृढ़ रूप से अनुचरण करते हुएतत्परायणा: – … Read more

५.१६ – ज्ञानेन तु तदज्ञानं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १५ श्लोक ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन: |तेषामादित्यवज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम् || पद पदार्थ येषां – उन जीवात्माओंआत्मन ज्ञानेन तु – स्वयं के बारे में ज्ञानतत् अज्ञानं – वो कर्म ( सद्गुण / दुर्गुण )नाशितं – विनाश होनातेषां – उनकोपरं तत् … Read more

५.१५ – नादत्ते कस्यचित् पापं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १४ श्लोक नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं  विभुः ।अज्ञानेनावृतं  ज्ञानं  तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ पद पदार्थ विभु: – जीवात्मा जो कई स्थानों में व्याप्त हो सकता हैकस्यचित् पापं –  (उनके  पुत्र आदि के समान प्रिय) लोगों के पाप न एव आदत्ते … Read more

५.१४ – न कर्तृत्वं न कर्माणि

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १३ श्लोक न कर्तृत्वं  न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः ।न  कर्मफलसंयोगं  स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥ पद पदार्थ प्रभु: – जीवात्मा जो वास्तविक स्वरूप में कर्म से बंधा नहीं हैलोकस्य – लोगों के विविध संग्रह के लिए [इस दुनिया में]कर्तृत्वं न सृजति … Read more

५.१३ – सर्वकर्माणि मनसा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १२ श्लोक सर्वकर्माणि मनसा सन्यस्यास्ते सुखं  वशी ।नवद्वारे पुरे देही नैव कुर्वन् न कारयन् ॥ पद पदार्थ देही – अवतरितवशी – आत्मा जो (स्वाभाविक रूप से) अपने नियंत्रण में हैनव द्वारे – शरीर के नौ द्वार वाले शहर मेंसर्व कर्माणि … Read more

५.१२ – युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक ११ श्लोक युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम् ।अयुक्तः कामकारेण फले सक्तो निबध्यते ॥ पद पदार्थ युक्तः – जो अन्य मामलों में इच्छा के बिना आत्मा पर ध्यान केंद्रित हैकर्म फलं – कर्मों का परिणाम जैसे स्वर्गलोक पहुँचना आदित्यक्त्वा – त्याग … Read more

५.११ – कायेन मनसा बुद्ध्या

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय ५ << अध्याय ५ श्लोक १० श्लोक कायेन मनसा बुद्ध्या केवलैरिन्द्रियैरपि ।योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये ॥ पद पदार्थ योगिन: – कर्म योगीसङ्गं – स्वर्ग आदि के प्रति लगावत्यक्त्वा – त्याग करकेआत्म शुद्धये – आत्मा से प्राचीन कर्मों (पुण्य / पाप ) से छुटकारा पाने और … Read more