श्री भगवद्गीता का सारतत्व – अध्याय १० (विभूति विस्तार योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता – प्रस्तावना

<< अध्याय ९

गीतार्थ संग्रह के चौदहवें श्लोक में, स्वामी आळवन्दार दसवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “साधना भक्ति [भगवान को पाने के साधन के रूप में भक्ति योग की प्रक्रिया] को प्रकट करने और उसका पोषण करने के लिए, भगवान के शुभ गुणों की असीमित प्रकृति, उनके सब कुछ के नियंत्रक होने के ज्ञान को दसवें अध्याय में विस्तार से समझाया गया है।”

मुख्य श्लोक / पद

श्लोक / पद १

श्रीभगवानुवाच
भूय एव महाबाहो शृणु मे परमं वचः।
यत्तेऽहं प्रीयमाणाय वक्ष्यामि हितकाम्यया ॥

श्री भगवान ने कहा, ” हे महाबाहो! तुम्हारी भलाई के लिए (मेरे प्रति भक्ति प्राप्त करने और उसका पोषण करने के लिए) मैं फिर से तुमसे बात कर रहा हूँ, तुम जो (मेरी महिमा सुनकर)आनंदित हो, केवल यह पूजनीय व्याख्यान (मेरी महिमा का वर्णन), मेरा (वह उत्कृष्ट व्याख्यान ध्यानपूर्वक) सुनो |”

टिप्पणी: जब अर्जुन ने कृष्ण के दिव्य वचनों को सुनकर आनंद प्रकट किया, तो कृष्ण ने दयापूर्वक उसे महान ज्ञान बाँटना चालू रखा।

दूसरे श्लोक में, कृष्ण उस ज्ञान की महानता की व्याख्या करते हैं जो वे इस अध्याय में अर्जुन को सिखाने जा रहे हैं।

श्लोक / पद ३

यो मामजमनादिं च वेत्ति लोकमहेश्वरम् ।
असम्मूढः स मर्त्येषु
सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥

मनुष्यों में से एक, जो यह सोचकर हतप्रभ नहीं है कि मैं अन्य पुरुषों के समान हूँ और जानता है कि मैं जन्म नहीं लेता, वो भी जिसका अनादिकाल से कोई जन्म नहीं हो और उन सभी के भगवान हूँ जिनको इस दुनिया के स्वामी माना जाता है ,सभी पाप ( जो भक्ति के विकास में बाधक हैं) से मुक्त हो जाता है |

टिप्पणी: केवल वही व्यक्ति पापों से मुक्त हो जाता है जो भगवान के वास्तविक स्वरूप को जानता है।

चौथे और पांचवें श्लोक में, वे बताते हैं कि कई क्षमताएँ (यहाँ तक कि विपरीत पहलू भी) उनकी इच्छा से प्राप्त होती हैं।

छठे श्लोक में, वे बताते हैं कि सप्त ऋषियों जैसे महान ऋषि उनकी इच्छा का पालन कर रहे हैं।

सातवें श्लोक में, वे बताते हैं कि जो व्यक्ति उनके वास्तविक धन को समझ लेता है, वह भक्ति योग में स्थिर हो जाता है।

श्लोक / पद ८

अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्वं प्रवर्तते ।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः ॥

मैं ही संपूर्ण जगत का मूल हूँ और सभी सत्ताएँ मुझसे ही संचालित होती हैं |मेरी इस नैसर्गिक निर्भार सम्पदा तथा शुभ गुणों पर ध्यान करते हुए, विद्वान बड़े प्रेम से मेरी पूजा करते हैं |

श्लोक / पद ९

मच्चित्ता: मद्गतप्राणा: बोधयन्तः परस्परम् ।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥

[मेरे भक्त ] उनका मन मुझमें स्थिर रखकर, उनका जीवन मुझमें केंद्रित, एक-दूसरे को सूचित करते (मेरे उन गुणों के बारे में जो उन्हें पसंद हैं ) हुए , हमेशा मेरे और मेरी दिव्य गतिविधियों के बारे में चर्चा करते हुए , वक्ता और श्रोता दोनों प्रसन्न हो जाते हैं |

श्लोक / पद १०

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम् ।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते ॥

जो लोग हमेशा (मेरे) साथ रहने की इच्छा में मेरे प्रति (निःस्वार्थ) भक्ति में लगे हुए हैं, (मैं) ख़ुशी से उनको वह परज्ञान नामक बुद्धि देता हूँ जो मुझ तक पहुँचने का एक पहलू है |

श्लोक / पद ११

तेषाम् एवानुकम्पार्थम् अहम् अज्ञानजं तमः ।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता ॥

उन निःस्वार्थ भक्ति योग निष्टों ( जो भक्ति योग में लगे हुए हैं) में, केवल मेरी दया के कारण, उनके ह्रदय का लक्ष्य होते हुए, मेरे बारे में ज्ञान के प्रकाशित दीपक के साथ, मैं अनादि काल से चले आ रहे पापों के कारण प्रकट अज्ञान (सांसारिक सुखों के प्रति लगाव का) के अंधकार को नष्ट करता हूँ, जो ज्ञान के लिए बाधक है |

टिप्पणी: इन तीन श्लोकों में, कृष्ण की कृपा से भक्ति की ऊर्ध्वगामी प्रगति को दर्शाया गया है।

अगले सात श्लोकों में, कृष्ण की महानता से अभिभूत होकर अर्जुन उसी के बारे में अपनी समझ प्रकट करता है और कृष्ण से अपने धन (गुणों और सभी प्राणियों पर नियंत्रण) की झलक दिखाने का अनुरोध करता है।

१९वें श्लोक में, कृष्ण इसके बारे में बात करने के लिए सहमत होते हैं और चेतावनी देते हैं कि उनके धन की कोई सीमा नहीं है।

श्लोक / पद २०

अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितः ।
अहमादिश्च मध्यं च भूतानामन्त एव च ॥

हे अर्जुन जिसने निद्रा पर विजय प्राप्त किया हो ! मैं सभी प्राणियों के हृदय में निवास करता अन्तर्यामी हूँ | मैं ही, सभी प्राणियों के लिए, सबसे पहले घटती सृष्टि , मध्य में होने वाली पालन और अंत में घटती विनाश का कारण हूँ |

टिप्पणी: वे सबसे पहले यह स्थापित करते हैं कि सब कुछ उनके नियंत्रण में है।

२१वें श्लोक से ४०वें श्लोक तक, वे संस्थाओं के समूह में से सबसे अच्छे पहलू का चयन करते हैं और स्वयं को वह पहलू बताते हैं ।

श्लोक / पद ४१

यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमदूर्जितमेव वा।
तत्तदेवावगच्छ त्वं मम तेजोंशसंभवम्।।

जिस जिस प्राणी के पास ऐसी महिमा है जो उसके द्वारा नियंत्रित होती है, तेजस्विता युक्त तथा शुभ कार्यों के आरंभ हेतु स्थिर रहता है; जानो कि उन प्राणियों ने इसे, मेरी नियंत्रण क्षमता के एक अंश से प्राप्त किया था |

श्लोक / पद ४२

अथवा बहुनैतेन किं ज्ञानेन तवार्जुन।
विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्।।

हे अर्जुन ! मगर इस ज्ञान का क्या उपयोग है ,जो तुम्हारे लिए मेरे द्वारा कई अलग-अलग तरीकों से समझाया गया है? मैं अपनी शक्ति के एक अंश से, इस सारे जगत् का पालन कर रहा हूँ |

टिप्पणी: अंत में, वे निष्कर्ष निकालते हैं कि यद्यपि उनकी क्षमता अनंत है, फिर भी यहाँ पूर्ण न्याय करने के लिए शब्द सीमित हैं।

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

आधार – https://githa.koyil.org/index.php/essence-10/

संगृहीत – http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org