श्री भगवद्गीता का सारतत्त्व – अध्याय २ (सांख्य योग)

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

श्री भगवद्गीता का सारतत्त्व

<< अध्याय १

गीतार्थ संग्रह के छठे श्लोक में, आळवन्दार दूसरे अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “ “शाश्वत आत्मा, वैराग्य के साथ धार्मिक कर्तव्य,  स्थितप्रज्ञ का अवस्था  (निर्णय और ज्ञान में दृढ़) की लक्ष्य , स्वयं और कर्म योग के बारे में ज्ञान जैसे विषय दूसरे अध्याय में अर्जुन की व्याकुलता को दूर करने के लिए समझाया गया है “।

पहले कुछ श्लोकों में कृष्ण ,अर्जुन को कायर होने के लिए अनुशासित करते हैं और उसे अपनी निर्बलता छोड़ने का आदेश देते हैं। लेकिन अर्जुन फिर से कृष्ण के सामने वही तर्क रखते हैं और कहते हैं कि वह शिक्षकों और रिश्तेदारों को मारने की इच्छा नहीं रखते हैं।

मुख्य श्लोक

श्लोक ७

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

मानसिक शक्तिहीनता के कारण विनष्ट हिम्मत से तथा सद्गुणों में भ्रमित मन से मैं तुमसे पूछता हूँ | मैं तेरा शिष्य बन गया हूँ | कृपया आदेश दो कि मेरे लिए क्या कल्याणदायक होगा | तेरे चरणों में आत्मसमर्पण करने वाले मुझे कृपया संवारो ।

टिप्पणी: यहां उन्होंने कृष्ण को अपना गुरु स्वीकार किया, उनके प्रति समर्पण किया और उनसे मार्गदर्शन मांगा। अगले कुछ श्लोकों में उनके पूर्ण समर्पण के बारे में बताया गया है। कृष्ण ग्यारहवें श्लोक से शुरू करते हुए, अपने गीतोपदेश के साथ आगे बढ़ते हैं।

श्लोक ११ 

श्री भगवानुवाच
अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥

श्री कृष्ण बोले – तुम (अर्जुन) उन लोगों के लिए चिंतित हैं जो चिंता करने के योग्य नहीं हैं; तुम भी वही बोल रहे हो जो बुद्धि से उत्पन्न होता है; बुद्धिमान व्यक्ति न तो निर्जीवित शरीर पर  चिंता करेंगे न जीवित आत्मा पर |

टिप्पणी: सबसे पहले, यह समझना महत्वपूर्ण है कि क्या अनुसरण करना  चाहिए और क्या अनदेखा करना चाहिए।

श्लोक १२

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम्‌ ॥

भूतकाल में कभी ऐसा समय नहीं था जब मैं ( सर्वेश्वर – सबका प्रभु ), तुम (जीवात्मा – आत्मा, चित ) और ये सारे राजायें ( जीवात्मा – आत्मा, चित ) जीवित नहीं थे | भविष्यत् काल में भी ऐसा समय कभी नहीं रहेगा जब हम सब ( मैं, तुम और ये सारे राजायें ) जीवित नहीं रहेंगे |

टिप्पणी: कृष्ण सभी आत्माओं की शाश्वत प्रकृति को स्थापित करते हैं और स्वयं और अर्जुन के बीच क्रमशः शिक्षक और शिष्य के रूप में अंतर करते हैं।

श्लोक १३

देहिनोऽस्मिन् यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥

जिस प्रकार इस शरीर में जीवित आत्मा बचपन , जवानी तथा बुढ़ापे का अनुभव करता है उसी प्रकार वो आत्मा (शरीर त्यागने के बाद) दूसरा शरीर प्राप्त करता है | ज्ञानी, आत्मा की इस देहान्तरण से चकित नहीं होता |

इस श्लोक के शुरुवात से , कई श्लोकों में, कृष्ण , आत्मा का  शाश्वत स्वरूप , शरीर का अस्थायीपन ,  इंद्रियों पर नियंत्रण की आवश्यकता आदि सिद्धांतों  को समझाते हैं ।

श्लोक १७

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्‌ ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥

यह जान लो कि, आत्मा जो ये सारे अचित वस्तुओं में व्यापित है, वो अविनाशि है और किसी भी तरीके से उसका नाश होना असंभव है |

श्लोक २०

न जायते म्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥

यह आत्मा न कभी उत्पन्न होता है न कभी विनाश होता है ; यह आत्मा न उत्पन्न हुआ था ( कल्प के शुरुआत में – ब्रह्मा का दिन ) न ( कल्प के अंत में ) उसका अंत होता है ; यह आत्मा अजात, नित्य, अपरिवर्तनीय , प्राचीन एवं सदैव निर्मल है ; इसलिए जब शरीर का नाश होता है तब इस आत्मा का नाश नहीं होता |

श्लोक २२

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि अन्यानि संयाति नवानि देही ॥

जिस प्रकार मनुष्य, पुराने एवं फटे हुए कपड़ों को त्यागकर नये कपड़ों को धारण कर लेता है उसी प्रकार आत्मा ( जो इस देह में निवास करता है ) पुराने शरीर को त्यागकर नये शरीर को अच्छी तरह से धारण कर लेता है |

श्लोक २६ और २७ में, कृष्ण कहते हैं, “अगर  तुम  आत्मा को निर्मित और नष्ट होता मानते हो ,  फिर भी तुम्हें  चिंता नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो बनाया गया है वह एक दिन  नष्ट हो जाएगा”।

श्लोक ३१ में, कृष्ण कहते हैं, “यहां तक ​​कि तुम्हारे  क्षत्रिय धर्म के अनुसार, तुम्हें  इस युद्ध में भाग लेना  होगा और तुम  पीछे नहीं हट सकते”। बाद में वह अर्जुन को लड़ने के लिए विभिन्न कारण बताकर समझाने की कोशिश करते हैं।

श्लोक ३८

सुख दुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय  युज्यस्व नैवं पापं  अवाप्स्यसि ॥

सुख-दुःख को समान समझो, वांछित वस्तुओं के लाभ-हानि (जो खुशी और शोक के कारण हैं) और जय-पराजय (जो लाभ-हानि के कारण हैं) को समान समझो ;उसके बाद, यदि तुम युद्ध में (इस सोच के साथ) शामिल होते हो  , तो तुम दुखों से भरे संसार को प्राप्त नहीं करोगे |

३९ वें श्लोक से, कृष्ण अर्जुन को कर्मयोग समझाना शुरू करते हैं।

श्लोक ४० 

नेहाभिक्रम नाशोSस्ति प्रत्यवायो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥

इस कर्म योग में, प्रारम्भ किये गये प्रयत्नों में कोई हानि नहीं होती है। (भले ही आरम्भ करके रोक दिया जाए) कोई दोष नहीं है; कर्म योग नाम के इस धर्म में, थोड़ा प्रयास भी संसार (बंधन) के महान भय से रक्षा करेगा| 

श्लोक ४५ 

त्रैगुण्य विषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन ।
निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान् ||

हे अर्जुन! वेद तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस ) वाले लोगों की भलाई के लिए कहता है । लेकिन तुम उन तीन गुणों से मुक्त हो जाओ ।  द्वैत (जैसे सुख/दुःख आदि) से मुक्त हो जाओ , हर दिन बढ़ती अच्छाई के साथ रहो,  चीजों को प्राप्त करने की क्षमता (योग) और प्राप्त की गई चीजों की रक्षा करने (क्षेम) ,से बेपरवाह होकर एक ऐसा व्यक्ति बनो जो पूरी तरह से  स्वयं (आत्मा) में व्यस्त हो जाता  है | 

टिप्पणी: नीच लक्ष्य वाले लोगों को वेद में दिए गए फलों  पर ध्यान केंद्रित करने के बारे में समझाते हुए, कृष्ण कारण बताते हैं कि वेद इस श्लोक में इन निम्न लक्ष्य को क्यों दिखाता है। और अगले श्लोक में बताया गया है कि बुद्धिमान व्यक्ति कैसे उच्च लक्ष्य को चुनेंगे।

श्लोक ४६

यावानर्थ उदपाने सर्वतः सम्प्लुतोदके।
तावान् सर्वेषु वेदेषु ब्राह्मणस्य विजानतः ॥

चारों ओर पानी से भरा हुआ जलाशय से, जो पानी का उपयोग करना चाहता है, वो केवल उतना ही स्वीकार करता है जितना उसे आवश्यक है | उसी तरह, एक बुद्धिमान मुमुक्षु (जो मोक्ष की इच्छा रखता है) के लिए, एक वैदिक [वेदों का अनुचरण करनेवाला  ] होते हुए भी, सभी वेदों में, केवल वही स्वीकार किया जाता है जो (मोक्ष के साधन के रूप में) आवश्यक है [मतलब यह है कि वेदों के सभी पहलू मुमुक्षुओं द्वारा स्वीकार और अनुसरण करने की आवश्यकता नहीं है]।

श्लोक ४७

कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेशु कदाचन ।
मा कर्मफलहेतुर्भू: मा ते सङ्गोSस्त्वकर्मणि ॥

एक मुमुक्षु होने के नाते, तुम केवल नित्य (दैनिक) नैमित्तिक  (नियत काल ) कर्मों की इच्छा कर सकते हो ; निम्नतर परिणाम जैसे स्वर्ग आदि (जो ऐसे कर्मों के परिणाम के रूप में प्रमुख बताये जाते हैं) कभी भी इच्छित योग्य नहीं हैं ; तुम्हें मोक्ष की ओर ले जानेवाले कर्मों में  निष्क्रिय रहने में भी लगाव नहीं होना चाहिए|  

अगले कई श्लोकों में, कृष्ण बताते हैं कि कैसे बुद्धिमान व्यक्ति परिणामों की लगाव के बिना कर्म करते रहते हैं।

श्लोक ५३ 

श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥

मुझसे सुनने से प्राप्त विशेष ज्ञान से तुम्हारी स्थिर बुद्धि, जब दृढ़ हो जाएगी, तब तुम आत्म साक्षात्कार प्राप्त करोगे ।

टिप्पणी: फिर, अर्जुन स्थितप्रज्ञ (जो ज्ञान योग में स्थित है) के बारे में पूछता है। श्लोक ५५ से, कृष्ण स्थितप्रज्ञ के बारे में समझाना शुरू करते हैं।

श्लोक ५५ 

श्री भगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मन्येवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥

भगवान (श्री कृष्ण) बोले, हे पृथा के पुत्र! जब कोई अपने आत्मा (जो आनंदमय है) के प्रति मन (जो आत्मा पर केंद्रित है) से स्नेहशील हो जाता है, और (अन्य परिणामों में केंद्रित) सभी इच्छाओं  को पूरी तरह से त्याग देता है, उस समय, वह एक स्थितप्रज्ञ के रूप में जाना जाता है। 

टिप्पणी:  इस ५५ वें श्लोक में, वशीकरण संयज्ञै के उच्चतम चरण को समझाया गया है।  ५६वें ​​श्लोक में एकेन्द्रिय संयज्ञै  के अगले निचले चरण के बारे में बताया गया है। ५७वें श्लोक में व्यातिरेक संयज्ञै  के अगले निचले चरण की व्याख्या की गई है। अंत में,५८ वें श्लोक में, यतमान संयज्ञै  के निम्नतम चरण को समझाया गया है। ये चरण आत्मा की ओर मन की प्रगतिशील गति को दर्शाते हैं। इसके बाद, भगवान के दिव्य स्वरूप पर ध्यान केंद्रित करने और ऐसा न करने के परिणाम के बारे में बताया गया है। अंत में, ६८ वें श्लोक में, कृष्ण समापन करते हैं कि  जो लोग अपनी इंद्रियों को सांसारिक आनंद से हटा लेते हैं, उनका ज्ञान स्वयं पर केंद्रित होगा।

अध्याय के अंतिम श्लोकों में आत्म-साक्षात्कार की महानता और आत्म-साक्षात्कार की प्राप्ति के बारे में बताया गया है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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