१.४५ – अहो बत महत् पापं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १

<< अध्याय १ श्लोक १.४४

श्लोक

अहो बत महत् पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्‌ ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ৷৷

पद पदार्थ

वयं – हम
राज्यसुखलोभेन – राज्यशासन की लोभ और आनंद की लालच में
स्वजनं – हमारे ही रिश्तेदारों को
हन्तुं उद्यता: – मारने की कोशिश कर रहे हैं
(इति) यत् – जो है
तत् – वो
महत् – बहुत बड़ा
पापं – पाप
कर्तुं – करने को
व्यवसिता – हमने हिम्मत की है
अहो -ओह !
बत – बहुत दुःखद !

सरल अनुवाद

ओह! बहुत दुःखद ! राज्यशासन की लोभ और आनंद की लालच में , हम हमारे ही रिश्तेदारों को मारने की कोशिश कर रहे हैं | हम वो करने का साहस कर रहे हैं( रिश्तेदारों को मारने की पाप ) जो संसार का सबसे बड़ा पाप है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

>>अध्याय १ श्लोक १.४६

आधार – http://githa.koyil.org/index.php/1-45/

संगृहीत- http://githa.koyil.org

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org