२.७ – कार्पण्य दोषोपहतस्वभावः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक ६

श्लोक

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥

पद पदार्थ

कार्पण्य दोषोपहतस्वभावः – मानसिक शक्तिहीनता के कारण विनष्ट हिम्मत से
धर्मसम्मूढचेताः – गुण विभ्रांत मन से
त्व – तुझसे
पृच्छामि – पूछता हूँ
इस विषय पर
यत् निश्चितं श्रेय: स्यात् – जो भी कल्याणदायक हो ( मेरे लिए )
तत् – वो
मे – मेरे लिए
ब्रूहि – कृपया बताओ
अहम् – मैं
ते – तुम्हारे लिए
शिष्य: – तेरा शिष्य बन गया हूँ
त्वां प्रपन्नम्‌ – तेरे चरणों में आत्मसमर्पण कर रहा हूँ
मां – मुझे
शाधि – संवारो

सरल अनुवाद

मानसिक शक्तिहीनता के कारण विनष्ट हिम्मत से तथा गुण विभ्रांत मन से मैं तुझसे पूछता हूँ | मैं तेरा शिष्य बन गया हूँ | कृपया आदेश दो कि मेरे लिए क्या कल्याणदायक होगा | तेरे चरणों में आत्मसमर्पण करने वाले मुझे कृपया संवारो |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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