२.८ – न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय २

<<अध्याय २ श्लोक ७

श्लोक

न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम्‌ ।
अवाप्य भूमावसपत्नमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम्‌ ॥

पद पदार्थ

इन्द्रियाणां – ज्ञानेन्द्रिय ( जैसे आँख आदि )
उच्छोषणं – जो अत्यंत सूख जाए
मम शोकं – मेरे दुःख
यत अनुपनुद्याद् – जो इसको मिटा दे
तत – वो
अहम् – मैं
भूमौ – इस धरती में
असपत्नम् – अद्वितीय
रुद्धं – समृद्ध
राज्यं – राज्य
सुराणां अपि च आधिपत्यम्‌ – देवों का अधिपति बनके भी ( स्वर्गीय लोग )
अवाप्य – अधिकार प्राप्त करके भी
न हि प्रपश्यामि – मुझे दिखाई नहीं देता

सरल अनुवाद

इस धरती में अद्वितीय तथा समृद्ध राज्य के प्राप्त होने पर भी या देवों ( स्वर्गीय लोग ) का अधिपति बनके भी , मुझे वो दिखाई नहीं देता जो मेरे दुःख को मिटा दे , वो दुःख जो मेरे ज्ञानेन्द्रियों (जैसे आँख ) को सुखा रहा है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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