३.१७ – यस्त्वात्मरतिरेव स्याद्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ३

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श्लोक

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं  न विद्यते ॥

पद पदार्थ

य: तु मानव: – वह आदमी
आत्म रति: एव – केवल आत्मा में लगे रहना
आत्मतृप्त:च (एव) – केवल आत्मा से संतुष्ट होना
आत्मनि एव – आत्मा में ही
सन्तुष्ट:- संतुष्टि प्राप्त करना
स्यात् – जो ध्यान केंद्रित रहता है
तस्य – उसके लिए
कार्यं  – किये जाने वाले कर्म
न विद्यते –  कुछ भी नहीं है 

सरल अनुवाद

वह  मनुष्य  जो केवल आत्मा में लगा हुआ है, जो केवल आत्मा से संतुष्ट है, जो संतुष्टि प्राप्त करने के बाद  आत्मा पर ही ध्यान केंद्रित रहता है, उसके लिए किये जाने वाले कर्म कुछ भी नहीं है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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