६.३४ – चञ्चलम् हि मनः कृष्ण

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ६

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श्लोक

चञ्चलं  हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवद्दृढम् ।
तस्याहं  निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥

पद पदार्थ

हि – क्योंकि
मनः – मन
चञ्चलं- (स्वाभाविक रूप से) डगमगाता हुआ,अस्थिर है
बलवद् – बलवान
(इसलिए) प्रमाथि – भ्रमित
दृढम् – दृढ़ (हमें सांसारिक सुखों की ओर खींचने में)
तस्य निग्रहं – इसे रोकना
वायो: इव – एक भयंकर तूफान को नियंत्रित करने के समान
सु दुष्करं – करना बहुत कठिन है
अहं मन्ये – मेरा मानना ​​है

सरल अनुवाद

[अनुवर्ती… पिछले श्लोक से] क्योंकि, मन (स्वाभाविक रूप से) अस्थिर, बलवान  और इसलिए भ्रमित और (हमें सांसारिक सुखों की ओर खींचने में)दृढ़ है । मेरा मानना ​​है कि इसे रोकना भयंकर तूफ़ान को नियंत्रित करने की तरह बहुत कठिन है।

अडियेन् कण्णम्माळ् रामनुजदासी

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