१.३० – गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्‌

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय १

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श्लोक
गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्‌ त्वक चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ৷৷

पद पदार्थ
हस्तात्‌ – मेरे हाथ से
गाण्डीवं – मेरा धनुष गाण्डीव
स्रंसते – फिसल रहा है
त्वक च एव – मेरा शरीर भी
परिदह्यते – जल रहा है
अवस्थातुं च – स्थिर से खड़े होना भी
न शक्नोमि – शक्तिहीन
मे मनः च – मेरा मन भी
भ्रमती इव – भटक रहा है

सरल अनुवाद

मेरा धनुष गाण्डीव मेरे हाथ से फिसल रहा है , मेरा शरीर भी पूरी तरह से जल रहा है , स्थिर से खड़े होना भी असम्भव लग रहा है ; और मेरा मन भी भटक रहा है |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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