८.८ – अभ्यासयोगयुक्तेन

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः

अध्याय ८

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श्लोक

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना ।
परमं पुरुषं दिव्यं याति पार्थानुचिन्तयन् ॥

पद पदार्थ

पार्थ – हे अर्जुन !
अभ्यास योग युक्तेन – अभ्यास और योग ( भक्ति योग ) के साथ
नान्य गामिना – और किसी वस्तु में बिना भटके
चेतसा – हृदय
परमं दिव्यं पुरुषं – सर्वोत्तम् और दिव्य पुरुष [ अर्थात् कृष्ण ]
अनुचिन्तयन् – जो सोचता है ( मृत्यु के समय )
( परमं दिव्यं पुरुषं ) याति – मुझे प्राप्त करता है जो ऐसा सर्वोत्तम् /दिव्य व्यक्ति हूँ ( अर्थात् अपार धन-संपत्ति का स्वामी बन जाता है )

सरल अनुवाद

हे अर्जुन ! उस हृदय के साथ जो अभ्यास और योग ( भक्ति योग ) पर स्थिर है, और किसी वस्तु में बिना भटके , जो सर्वोत्तम् और दिव्य पुरुष [ अर्थात् कृष्ण ] के बारे में (मृत्यु के समय ) सोचता है, मुझे प्राप्त करता है जो ऐसा सर्वोत्तम् /दिव्य व्यक्ति हूँ ( अर्थात् अपार धन-संपत्ति का स्वामी बन जाता है ) |

अडियेन् जानकी रामानुज दासी

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