१८.४९ – असक्तबुद्धि: सर्वत्र

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४८ श्लोक असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह: |नैष्कर्म्यसिद्धिं  परमां सन्न्यासेनाधिगच्छति || पद पदार्थ सर्वत्र – कर्म और उसके फल दोनों मेंअसक्त बुद्धि: – आसक्ति रहितजितात्मा – मन पर विजय प्राप्त करने वालाविगतस्पृह: – (अपने कर्तापन की) इच्छा न रखने वालासन्न्यासेन – … Read more

१८.४८ – सहजं कर्म कौन्तेय

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४७ श्लोक सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत् |सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता: || पद पदार्थ कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र!सहजं कर्म – कर्म योग जो स्वाभाविक रूप से उपयुक्त है [व्यक्तियों की प्रकृति के लिए]स दोषम् अपि – दोषों के साथ … Read more

१८.४७ – स्वभावनियतं कर्म

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४६.५ श्लोक स्वभावनियतं कर्म कुर्वन् नाप्नोति किल्बिषम् || पद पदार्थ स्वभाव नियतं कर्म – कर्म जो स्वाभाविक रूप से [उसकी प्रकृति के लिए] उपयुक्तकुर्वन् – जो करता हैकिल्बिषम् – संसार जो पाप का परिणाम हैन अप्नोति – प्राप्त नहीं होगा … Read more

१८.४६.५ – श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४६ श्लोक श्रेयान् स्वधर्मो विगुणः परधर्मात् स्वनुष्ठितात् | पद पदार्थ स्वधर्म: – कर्म योग जो ( शरीर सहित मनुष्य के लिए ) स्वाभाविक रूप से अनुसरणीय हैविगुण: (अपि) – कमियों के साथ भीस्वनुष्ठितात् – (कभी-कभी) ) अच्छी तरह से अभ्यास … Read more

१८.४६ – यत: प्रवृत्तिर्भूतानाम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४५ श्लोक यत: प्रवृत्तिर्भूतानां  येन सर्वम् इदं ततम् |स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य   सिद्धिं विन्दति मानव: || पद पदार्थ यत: – जिस परमपुरुष सेभूतानां प्रवृत्ति: – हर वस्तु के सृजन आदि जैसे सभी क्रियाएँ उभरते हैंयेन – जिस सर्वोच्च प्रभु द्वाराइदं सर्वम् … Read more

१८.४५ – स्वे स्वे कर्मण्यभिरत:

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४४ श्लोक स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते  नर: |स्वकर्मनिरत: सिद्धिं यथा विन्दति तच्छृणु  || पद पदार्थ स्वे स्वे कर्मणि – अपने वर्ण के अनुसार कर्मों मेंअभिरत: – ग्रस्तनर: – व्यक्तिसंसिद्धिं – मोक्ष का फललभते – प्राप्त करता हैस्व कर्म निरत: … Read more

१८.४४ – कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४३ श्लोक कृषिगोरक्ष्यवाणिज्यं वैश्य कर्म स्वभावजम् |परिचार्यात्मकं कर्म शूद्रस्यापि स्वभावजम् || पद पदार्थ कृषि गोरक्ष्य वाणिज्यं – खेती, गायों की रक्षा और व्यापार करनास्वभावजम् – पिछले कर्मों से प्राप्तवैश्य कर्म – वैश्यों के लिए गतिविधियाँशूद्रस्य अपि – चौथे वर्ण से … Read more

१८.४३ – शौर्यं तेजो धृति: दाक्ष्यम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४२ श्लोक शौर्यं तेजो धृति: दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |दानम्  ईश्वरभावश्च  क्षात्रं  कर्म स्वभावजम् || पद पदार्थ शौर्यं – वीरता जो किसी को युद्धभूमि में निडरता से प्रवेश कराती हैतेज:- अपराजेय होनाधृति: – बाधा उत्पन्न होने पर भी दृढता से स्थित … Read more

१८.४२ – शमो दम: तप: शौचं

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४१ श्लोक शमो दमस्तप : शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च  ​​|ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् || पद पदार्थ शम:- बाह्य इन्द्रियों पर नियंत्रणदम:- मन को नियंत्रित करनातप:-शास्त्र में बताए अनुसार शरीर से तपस्या करनाशौचं – शास्त्र में निर्धारित गतिविधियों में संलग्न होने की … Read more

१८.४१ – ब्राह्मणक्षत्रियविशाम्

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः अध्याय १८ << अध्याय १८ श्लोक ४० श्लोक ब्राह्मणक्षत्रियविशां  शूद्राणां  च परन्तप |कर्माणि प्रविभक्तानि स्वभावप्रभवैर्गुणैः || पद पदार्थ परन्तप – हे शत्रुओं को सताने वाला!ब्राह्मण क्षत्रिय विशां – ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों केशूद्राणां च – और शूद्रों केस्वभावप्रभवै: गुणै: – उनमें से प्रत्येक के लिए गुण … Read more