श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीता संग्रह के अठारहवें श्लोक में श्री आळवन्दार स्वामीजी चौदहवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “चौदहवें अध्याय में – किस प्रकार तीन प्रकार के गुण अर्थात् सत्व, रजस् और तमस् , इस संसार (भौतिक जगत) में बाँधते हैं, इन गुणों की प्रकृति ही कर्मों का कारण है, इन गुणों को नष्ट करने की विधि और वे (भगवान) तीन प्रकार के परिणामों (सर्वोत्तम सांसारिक संपत्ति, आत्म-भोग, भगवान को प्राप्त करना) के दाता हैं, इन सबका वर्णन किया गया है।”
मुख्य श्लोक / पद
श्री भगवानुवाच
परं भूयः प्रवक्ष्यामि ज्ञानानां ज्ञानमुत्तमम्।
यज्ज्ञात्वा मुनयः सर्वे परां सिद्धिमितो गताः।।
भगवान ने कहा – मैं पुनः (पहले बताये हुए ज्ञान की व्याख्या करते हुए) उस ज्ञान के बारे में बताऊँगा जो ज्ञानों में (प्रकृति और पुरुष को जानने में) श्रेष्ठ है , जो (पहले बताये हुए ज्ञान से) भिन्न है; जिस ज्ञान को प्राप्त करके, वे सभी जो इस तरह के ज्ञान पर ध्यान करते , इस संसार (भौतिक क्षेत्र) से अपने शुद्ध आत्मा की महान अनुभूति प्राप्त किया है।
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च।।
जो इस ज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं (जिसे समझाया जाना है), वे मेरे साथ समानता प्राप्त कर लेंगे, और न तो यहाँ उनका सृजन होगा और न ही विनाश।
तीसरे और चौथे श्लोक में भगवान कहते हैं कि आत्मा और प्रकृति का मिलन, जिसके कारण विविध सृष्टि उत्पन्न हुई, इसकी व्यवस्था उन्होंने स्वयं की है।
सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृतिसंभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्।।
हे महाबाहु अर्जुन! सत्व (अच्छाई), रजस (इच्छाएं) और तमस (अज्ञान) नाम के ये तीन गुण, जो हमेशा पदार्थ के साथ जुड़े रहते हैं, जीवात्मा को उसके शरीर में बांध रहे हैं, जिसे (स्वाभाविक रूप से) गुणों के साथ रहने की हीनता नहीं है और वह शरीर में निवास कर रहा है।
टिप्पणी: इस श्लोक से प्रारम्भ करते हुए, कृष्ण तीन गुणों और उनके प्रभाव के बारे में विस्तार से बात करते हैं।
त्र सत्त्वं निर्मलत्वात्प्रकाशकमनामयम्।
सुखसङ्गेन बध्नाति ज्ञानसङ्गेन चानघ।।
हे निर्दोष (अर्जुन)! सत्व, रजस और तमस नामक तीन गुणों में से, चूँकि सत्व (अच्छाई) स्वाभाविक रूप से (आत्मा का ज्ञान और आनंद) बिना छुपाए प्रकट होता है , यह (आत्मा को) सच्चा ज्ञान देता है और स्वस्थ जीवन प्रदान करता है। यह (शरीर में स्थित आत्मा को) आनंद और ज्ञान में आसक्ति उत्पन्न करके उसे और भी बांधता है।
रजो रागात्मकं विद्धि तृष्णासङ्गसमुद्भवम्।
तन्निबध्नाति कौन्तेय कर्मसङ्गेन देहिनम्।।
हे कुन्तीपुत्र! जान लें कि रजो गुण (पुरुष और महिला के बीच) इच्छा का कारण है और शब्द (ध्वनि) आदि पर आधारित सांसारिक सुखों के प्रति इच्छा तथा पुत्रों/मित्रों में आसक्ति का कारण है; वह रजो गुण शरीर में स्थित आत्मा को सांसारिक कार्यों में कामना उत्पन्न करके बाँधता है।
तमस् त्वज्ञानजं विद्धि मोहनं सर्वदेहिनाम्।
प्रमादालस्यनिद्राभिस्तन्निबध्नाति भारत।।
हे भरत के वंशज! तमो गुण (अज्ञानता का गुण) के विषय में यह जान लो कि यह संस्थाओं की प्रकृति को गलत समझने के कारण उत्पन्न होता है; तथा यह शरीरधारी सभी आत्माओं को धर्म के विरुद्ध ज्ञान उत्पन्न करता है; वह प्रमाद, आलस्य और निद्रा उत्पन्न करके आत्मा को बाँधता है।
टिप्पणी: इन तीनों श्लोकों में तीनों गुणों के प्रभाव को विस्तार से समझाया गया है।
९वें श्लोक में प्रत्येक गुण के महत्वपूर्ण पहलू को समझाया गया है।
१०वें श्लोक में प्रत्येक गुण किस प्रकार अलग-अलग समय पर हावी होता है, यह समझाया गया है।
११वें से १३वें श्लोक तक हम प्रत्येक गुण की प्रधानता को उसके प्रभाव से कैसे समझ सकते हैं, यह बताया गया है।
१४वें और १५वें श्लोक में बताया गया है कि तीनों गुणों में से प्रत्येक के प्रबल होने पर शरीर छोड़ने का परिणाम उसी गुण के अनुरूप अगले जन्म को प्राप्त होना है।
१६वें श्लोक में बताया गया है कि ऐसे जन्मों को प्राप्त करने के बाद, व्यक्ति आगे चलकर ऐसे ही गुणों में संलग्न होगा।
१७वें और १८वें श्लोक में व्यक्ति में ऐसे गुणों के परिणाम बताए गए हैं।
नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टाऽनुपश्यति |
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति ||
जब कोई व्यक्ति सत्वगुण में स्थापित है और जिसे आत्म-साक्षात्कार है, तो वह अपनी आत्मा को, जो कि सत्व आदि गुणों से भिन्न है, कर्ता नहीं मानता है, और जब वह गुणों (कर्ता) को अपनी आत्मा (अकर्ता) से भिन्न मानता है, तब वह मेरी अवस्था तक पहुँचता है।
२०वें श्लोक में वे बताते हैं कि इस अवस्था तक पहुँचने का अर्थ है सभी दुखों से मुक्त होना और शुद्ध आत्मा का आनंद लेना।
२१वें श्लोक में अर्जुन ने तीन गुणों को पार करने वाले व्यक्ति के स्वभाव के बारे में प्रश्न करता है।
२२वें श्लोक में कृष्ण बताते हैं कि जो व्यक्ति तीन गुणों को पार कर गया है, वह न तो वांछनीय और अवांछनीय पहलुओं से घृणा करेगा और न ही उन्हें पसंद करेगा।
२३वें श्लोक में वे आगे बताते हैं कि ऐसा व्यक्ति चुप रहेगा और ऐसी परिस्थितियों में कोई कार्य नहीं करेगा।
२४वें और २५वें श्लोक में कृष्ण बताते हैं कि, जो तीन गुणों से पार हो गया है वह मिट्टी, पत्थर और सोने को एक समान मानता है, वह जानता है कि आत्मा शरीर से अलग है,वह स्वयं की प्रशंसा और अपमान को एक समान मानता है, मित्र और शत्रु को समान मानता है, और उन सभी प्रयासों को छोड़ देगा जो शरीर के साथ बंधन की ओर ले जाते हैं।
माम् च योऽव्यभिचारेण भक्तियोगेन सेवते |
स गुणान् समतीत्यैतान् ब्रह्मभूयाय कल्पते ||
जो व्यक्ति ,अन्य देवताओं और लाभों पर ध्यान केंद्रित न करते (अंगों सहित) भक्ति योग से मेरी पूजा करता है, वह इन तीन गुणों (सत्व, रजस, तमस) से परे होकर , ब्रह्म के समान होने के योग्य हो जाता है।
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् अमृतस्याव्ययस्य च |
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च ||
ऐसा इसलिए है, क्योंकि मैं अमर और अविनाशी आत्मा की प्राप्ति का साधन हूँ; साथ ही, मैं शाश्वत धर्म, भक्ति योग का साधन हूँ, जो महान ऐश्वर्य की ओर ले जाता है; और, मैं एक ज्ञानी द्वारा प्राप्त आनंद का साधन हूँ।
टिप्पणी: श्री कृष्ण यह कहकर समाप्त करते हैं कि वे ऐश्वर्य (सांसारिक संपत्ति), कैवल्य (आत्म-आनंद) और भगवत् कैंकर्य (भगवान की नित्य सेवा) के साधन हैं।
अडियेन् जानकी रामानुज दासी
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