श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः
गीतार्थ संग्रह के इक्कीसवें श्लोक में, आळवन्दार स्वामीजी सत्रहवें अध्याय का सारांश समझाते हुए कहते हैं, “सत्रहवें अध्याय में – यह समझाया गया है कि वे सभी कार्य जो शास्त्र में निर्दिष्ट नहीं हैं, वे असुरों (क्रूर स्वभाव वाले) के लिए हैं (और इसलिए व्यर्थ हैं), वे कार्य जो शास्त्र में गुणों (सत्व, रजस् और तमस् ) के आधार पर निर्दिष्ट हैं, वे तीन अलग-अलग तरीकों से उपस्थित हैं। यह समझाया गया है कि शास्त्र में निर्दिष्टक्ष यज्ञ जैसे उन कार्यों आदि के लिए, “ॐ तत् सत्” शब्द (एक साथ जोडकर , ये ऐसी गतिविधियों को दूसरों से अलग करते हैं) और उन्हें [ऐसी गतिविधियों की] पहचान कराते हैं”।
मुख्य श्लोक / पद
अर्जुन उवाच
ये शास्त्रविधिमुत्सृज्य यजन्ते श्रद्धयाऽन्विता: |
तेषां निष्ठा तु का कृष्ण सत्त्वमाहो रजस्तम: ||
अर्जुन बोला – हे कृष्ण! जो लोग शास्त्र के नियमों की अवहेलना करके भी श्रद्धापूर्वक यज्ञ करतें हैं, उनकी अवस्था किस्में है? सत्त्वगुण (अच्छाई), रजोगुण (जोश) या तमोगुण (अज्ञान) में है ?
टिप्पणी: दूसरे श्लोक से चौथे श्लोक तक, कृष्ण बताते हैं कि किसी व्यक्ति में आस्था सात्विक, राजसिक या तामसिक हो सकती है। यह शास्त्रों में निर्धारित गतिविधियों से संबंधित है।
यजन्ते सात्विका देवान् यक्षरक्षांसि राजसा: |
प्रेतान् भूतगणांश्चान्ये यजन्ते तामसा जना: ||
जिन लोगों में सत्वगुण प्रचुर मात्रा में होता है और इसी प्रकार की श्रृद्धा है, वे देवताओं का पूजा करते हैं; जिनके पास रजोगुण (जोश) की प्रचुरता है, और इसी प्रकार की श्रृद्धा है, वे यक्ष (भूतों) और राक्षसों की पूजा करते हैं; अन्य जो उपरोक्त दो श्रेणियों के लोगों से भिन्न हैं और जिनके पास तमोगुण (अज्ञान) की प्रचुरता है, और इसी प्रकार की श्रृद्धा है, वे मृत लोगों और पिशाचों की पूजा करते हैं।
५ वे और ६ वे श्लोकों में वे बताते हैं कि जो कार्य शास्त्र में निर्दिष्ट नहीं हैं, वे श्रद्धापूर्वक किए जाने पर भी केवल व्यर्थ ही नहीं हैं, वे विनाशकारी परिणाम भी देते हैं।
आहारस्त्वपि सर्वस्य त्रिविधो भवति प्रिय: |
यज्ञस्तपस्तथा दानं तेषां भेदमिमं श्रुणु ||
सभी प्राणियों के लिए भोजन भी तीन श्रेणियों (सत्व, रजस् और तमस्) के आधार पर प्रिय है; वैसे ही यज्ञ , तपस्या और दान भी हैं; भोजन, यज्ञ, तप और दान में (सत्व आदि गुणों के आधार पर) जो विभिन्नताएँ हैं, उसे (मुझसे) सुनो।
८,९ और १० वे श्लोकों में सत्व, रजस् और तमस् प्रकृति के खाद्य पदार्थों पर प्रकाश डाला गया है। सत्व गुण वाले खाद्य पदार्थ शाश्वत अच्छाई की ओर ले जाते हैं, रजो गुण वाले खाद्य पदार्थ शोक, दुख और बीमारी की ओर ले जाते हैं और तमो गुण वाले खाद्य पदार्थ शाश्वत बंधन/दुख की ओर ले जाते हैं।
११ , १२ और १३ वे श्लोकों में सत्व, रजस् और तमस् प्रकृति के यज्ञों पर प्रकाश डाला गया है। सात्विक यज्ञ शास्त्रानुसार, बिना किसी अपेक्षा के तथा भगवान की पूजा के रूप में किया जाता है; राजस यज्ञ विशेष परिणाम की आशा से, प्रसिद्धि प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है; तामस यज्ञ ब्राह्मणों के मार्गदर्शन के बिना, अधर्मी धन से, बिना (क) उचित मंत्र, (ख) दक्षिणा और (ग) श्रद्धा के साथ किया जाता है।
१४ वें श्लोक से १९ वें श्लोक तक तपस की विस्तार से चर्चा की गई है। उसमें, श्लोक १४ से १६ में शरीर, वाणी और मानसिक आधारित तपस्या के बारे में बताया गया है। श्लोक १७ से १९ तक सत्व, रजस् और तमस् की प्रकृति में की गई तपस्या के बारे में बताते हैं।
२० वें श्लोक से २२ वें श्लोक तक, सत्व, रजस् और तमस् की प्रकृति में किए गए दान पर प्रकाश डाला गया है।
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा ||
ॐ तत् सत्” ये तीन शब्द वैधिक कर्म [अनुष्ठान] से युक्त कहे गए हैं। जो लोग (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) वेद सीखने के योग्य हैं और जो इन तीन शब्दों से युक्त हैं, वेद (शास्त्र) और यज्ञ (आहुति) सृष्टि के समय मेरे द्वारा रचे गए हैं।
टिप्पणी: अगले ४ श्लोकों में इस श्लोक में बताए गए सिद्धांत को विस्तार से बताया गया है।
२४ वें श्लोक में बताया गया है कि सभी वैधिक कर्म करने से पहले, प्रणव का पाठ करना चाहिए।
२५ वें श्लोक में बताया गया है कि मोक्ष चाहने वाले त्रैवर्णिक (ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य) किसी अन्य अपेक्षा के बिना ‘तत्’ का उच्चारण करते हुए यज्ञ, तप, दान आदि करते हैं।
२६ वें श्लोक में बताया गया है कि सभी शुभ कार्यों के साथ ‘सत्’ का उच्चारण किया जाता है। अगले श्लोक में भी ‘सत्’ का महत्व समझाया गया है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत्।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ||
हे कुन्तीपुत्र! जो यज्ञ, दान और तप, श्रद्धा के बिना किया जाता है, वह “असत्” कहा जाता है; उससे न तो मोक्ष की प्राप्ति होती है, न ही किसी भौतिक लाभ की प्राप्ति होती है।
अडियेन् कण्णम्माळ् रामानुज दासी
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